‘जिन्हें अपनी जात नहीं पता’, उन्हें आप की जात तो पता चल गई हुज़ूर। मैं भी आप की जात को ले कर बहुत वक़्त ख़ुशफ़हमी में था। फिर आहिस्ता-आहिस्ता आप की ‘गोली मारो सालों को’ जैसे नारों से, क्रिकेट-व्यवस्था में सुधार के लिए लोढ़ा समिति की सिफ़ारिशों को लागू करने में अड़ंगेबाज़ी से और महिला पहलवानों के प्रसंग में सामने आए आप के करमों से मुझे आप की जात का संकेत अच्छी तरह मिल गया था। जो थोड़ा-बहुत संशय रह गया था, वह लोकसभा के भीतर ज़ाहिर हुई आप की ज़हरीली, नफ़रती और विषधरी मंशा ने पूरी तरह दूर कर दिया।
आप अगर – ‘जाति’ का पता नहीं – कहते तो भी मैं शायद आप को माफ़ कर देता। मगर आप ने तो – ‘जात’ का पता नहीं – कहा। आप के इस घिनौने इज़हार का पाप तो रामलला भी माफ़ नहीं कर पाएंगे। ‘जात का पता नहीं’ से ज़्यादा असभ्य, कुत्सित और बेहूदी व्यंजना इसलिए कुछ और हो ही नहीं सकती कि इस से वर्ण-व्यवस्था से पर टिप्पणी के बजाय पितृत्व पर संशय घ्वनित होता है। ‘जात’ का अर्थ है जन्म। अभी-अभी जन्म लिए शिशु को ‘नवजात’ कहा जाता है। प्रसवपीड़ा के लिए भी शब्द है ‘जात-पीर’। तो जात का अर्थ महज़ जाति नहीं है।
कबीरदास जी जब ‘मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान’ की सलाह देते हैं तो वे साधु की ‘जाति’ नहीं पूछने की बात करते हैं। वे ‘जात’ और ‘जाति’ का फ़र्क़ जानते थे। लेकिन हुज़ूर तो खेलकूद कर नवाब बने हैं। उन में इतनी सिफ़त कहां से आए? सो, सड़कछाप राजनीतिक मंचों पर अपनी ‘जात’ बताते-बताते उन्होंने बारिश में चूते लोकतंत्र के मंदिर में भी अपनी असली ‘जात’ बता दी। अक़्ल का अजीर्ण और किसे कहते हैं? संसद की दीवारें इस नौनिहाल की शाब्दिक बेशर्मी पर दीदे बहाना चाहें तो बहाएं।
मगर छोटे मियां तो छोटे मियां, बड़े मियां सुभानअल्लाह! अपने नौनिहाल के छिछोरेपन पर ज़िल्ल-ए-सुब्हानी गर्व से ऐसे भर उठे कि आव देखा न ताव, लोकसभा की कार्यवाही से विलुप्त कर दिए गए अंशों को सोशल मीडिया के मंचों पर सार्वजनिक तौर पर परोस देने के लिए सारे नियम-क़ानूनों को ठेंगा दिखा दिया। नौनिहाल की पीठ ज़ोरशोर से थपथपाने के लिए ज़िल्ल-ए-सुब्हानी ने संसदीय सदाचार की आचरण संहिता को अपने अहम की खूंटी पर लटका दिया। जिन से संसदीय लोकतंत्र को उजला बनाने की आस हो, जब वे ही उसे कालाकलूटा बनाने पर तुले हों तो कोई क्या करे?
हमारे धर्म शास्त्रों में वर्णों का ज़िक्र तो है, जाति का कहीं नहीं। जन्मना जायते शूद्रः, कर्मणा द्विज उच्यते। तो जन्म से तो सब शूद्र ही होते हैं। यह तो कर्म से तय होता है कि किस का वर्ण क्या है? ब्रह्मा के दस प्रजापतियों में से एक, सात सप्तऋषियों में से एक थे पुलस्त्य और उन के पुत्र थे विश्रवा ऋषि। वे महान विद्वान और सत्यवादी थे। मगर विश्रवा के पुत्र रावण को आप क्या मानते हैं? ब्राह्मण या राक्षस? रैदास को जिन्हें दलित मानना हो मानें, मैं तो उन्हें ब्राह्मण वर्णीय मानूंगा। कबीर को जिन्हें जुलाहा मानना हो मानें, मैं तो उन्हें ब्राह्मण वर्ण में मानूंगा। दादू और पीपा की पहचान क्या इस से होगी कि वे ब्राह्मण वर्ण के थे या नहीं?
मैं तो वर्ण-व्यवस्था को ही पूरी तरह नकारता हूं, मगर अगर विचारों और कर्म के हिसाब से देखें-परखें तो ‘जिन्हें अपनी जात नहीं पता’ का पतनाला बहाने वाले हुड़दंगी नौनिहाल को आप किस खांचे में रखेंगे? पूत सपूत तो का धन संचय और पूत कपूत तो का धन संचय? सपूत के पांव भी पालने में ही दिख जाते हैं और कपूत के पांव भी पालने में ही दिख जाते हैं। सो, वर्ण अगर हैं तो ये दो ही हैं। या तो आप का जन्म सपूत वर्ण में होता है या कपूत वर्ण में। अगर नौनिहाल के उद्गारों से उन के पिता का सीना गर्व से फूल गया हो तो नौनिहाल को सपूत मान लीजिए। लेकिन उन की जिस गुगली पर ज़िल्ल-ए-सुब्हानी की छाती 56 के बजाय 112 इंच की हो गई है, उस गुगली ने पिता की छाती सिकोड़ दी हो तो फिर नौनिहाल को सपूत कैसे कहें?
दस बरस पहले तक मैं सोचा करता था कि राजकाज का सर्वेसर्वा अभिभावक सरीखा होता है। वह अपकर्मों को और अपशब्दों को बढ़ावा देने का नहीं, उन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी निभाता है। वह कुरीतियों और कुसंगतियों का समर्थन करने के बजाय उन का प्रतिकार करने का फ़र्ज़ पूरा करता है। वह उद्दंडता और उज़बकपन के खि़लाफ़ खड़ा होता है। मगर इस एक दशक ने मेरी सोच को पूरी तरह ग़लत साबित कर दिया। मैं पहली बार एक ऐसे अभिभावक को देख-देख आठ-आठ आंसू रो रहा हूं, जो अपनी भावी पीढ़ी को परिष्कृत करने के बजाय उसे झपटमार, उठाईगीरा और दुर्दांत बनने के लिए उकसा रहा है। जो कजख़ुल्क़ी और बद-अख़्लाक़ी की दैनिक मैराथन दौड़ आयोजित कर रहा है और उस में प्रथम आने वालों की तरफ़ रोज़-ब-रोज़ अपने गले का हार उतार कर फेंकते हुए कुदक रहा है।
‘महाजनो येन गतः स पंथाः’ सचमुच के महा-जनो का अनुकरण करने की गरज़ से कहा गया था। इस दौर के महा-जन बन कर जबरदस्ती जमे हुए मुखौटेबाज़ों का अनुसरण करने वाला देश जैसा बनता है, भारत वैसा बन रहा है। आस्तीनें चढ़ा कर जनतंत्र का संचालन करने वालों को अहसास ही नहीं है कि उन की करनी देश को दस बरस में कहां ले आई है? वे भूल रहे हैं कि सभ्यताएं एक दिन में नहीं बनती हैं, संस्कृतियां रातो-रात नहीं जन्मती हैं, संस्कारों के बादल नहीं फटा करते हैं। इन सब की एक-एक परत न जाने कितनों के, न जाने कितने, अनवरत परिश्रम से आकार लेती है। विध्वंस एक लमहे में हो सकता है, निर्माण में सदियां लगती हैं।
सो, ज़िल्ल-ए-सुब्हानी और उन के नौनिहाल तो एक-न-एक दिन चले जाएंगे। मगर तय तो यह करना है कि उन के जाते-जाते क्या हम कुछ बचा पाएंगे? इसलिए यह समय उन सब के एकजुट होने का है, जिन्हें अपनी जात नहीं पता। यह समय उन्हें डट कर जवाब देने का है, जो हर रोज़ अपनी असली जात दिखा रहे हैं। अब जब बात ‘जात’ पर ही आ गई है तो सब का रक्त-बीज सामने आ ही जाए। दुनिया भी तो देखे कि कोई लाख छुप-छुप के कमी-गाहों में बैठ जाए, जल्लादों के मस्कन का सुराग़ तो ख़ून ख़ुद दे देता है।
इसलिए यह समय लट्ठमारों को यह याद दिलाने का है कि ज़ुल्म की उम्र बहुत छोटी होती है। उस के पूरी तरह मिटने का भी एक दिन मुअय्यन है। 2024 के 4 जून की तारीख़ भी जिन की आंखें नहीं खोल पाई है, तवारीख़ से उन की अलविदाई के दिन नज़दीक आते जा रहे हैं। बहुत बार ख़ुद की बर्बादियों के मशवरे आसमानों में नज़र नहीं आते हैं, मगर जब उन के हर्फ़ ज़मीन पर उतरते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। ज़िल्ल-ए-सुब्हानी के उत्साहीलालों का उलट-गरबा यही इशारे कर रहा है।
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