आदरणीय राहुल गांधी जी,
कांग्रेस-अध्यक्ष सोनिया गांधी अगर अपने इलाज़ की वजह से देश से बाहर नहीं होतीं और प्रियंका गांधी रायबरेली-अमेठी के दायरे से बाहर भी अपनी राजनीतिक भूमिका निभा रही होतीं, तब भी आज मैं आपसे ही मुखा़तिब होता। इसलिए कि अब से चार बरस पहले के एक रविवार की सुबह, 20 जनवरी 2013 को, कांग्रेस के चिंतन शिविर में आपकी कही बातों ने मुझ जैसे बहुत-से लोगों के मन में जो आस जगाई थी, आज भी देश भर में उसकी लौ पूरी तरह बुझी नहीं है। जयपुर से जगे सपनों को लाखों कांग्रेसी अब तक बड़े जतन से सहेज कर अपनी गिरह में बांधे हुए हैं। इसलिए मैं मानता हूं कि आपके लिए यह अपने दायित्व-बोध की परख का सबसे निर्णायक क्षण है।
जयपुर में आपकी चिंता थी कि अखि़र ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारी व्यवस्था में उस आम-जन की तो कोई बात ही नहीं सुनता, जो बहुत-कुछ जानता है और उन सामर्थ्यवान की सब सुनते हैं, जिन्हें रत्ती भर भी समझ नहीं है? आपने खुद ही जवाब दिया था कि ऐसा इसलिए होता है कि हम ज्ञान की क़द्र करते ही नहीं हैं और यही हमारी त्रासदी है। फिर आपने कहा कि हमारी सारी सार्वजनिक व्यवस्थाएं–प्रशासनिक, न्यायिक, शैक्षणिक, राजनीतिक–समझदार लोगों को परे रखने के हिसाब से रची गई हैं, औसत से कम दर्जे की समझ रखने वाले जुगाड़ू लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए संरचित हैं और इन व्यवस्थाओं के दरवाज़े बाकियों के लिए पूरी तरह बंद हैं। आपको इस बात का मलाल था कि गहरी दृष्टि रखने वालों की आवाज़ जुगाड़ुओं के शोर में दब जाती है और हम अपने साथियों की सकारात्मक उपयोगिता पर ध्यान नहीं देते हैं। आपने इस सबमें बुनियादी बदलाव की ज़रूरत को भी रेखांकित किया था।
राहुल जी, जयपुर में कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी संभालते वक़्त आपने कुछ सार्थक वादे भी किए थे। कहा था कि मैं सभी को समान नज़रिए से देखूंगा; जो आप कहेंगे, सुनूंगा और समझने की कोशिश करूंगा; जो काम करेगा, उसे आगे बढ़ाऊंगा; जो काम नहीं करेगा, उससे कहूंगा कि दूसरों के लिए जगह खाली करे; और, मैं न्यायाधीश की भूमिका में रहूंगा, किसी के वकील की भूमिका में नहीं।
उस सुबह आपने कुछ ऐसी निजी बातें भी साझा की थीं, जिनसे मेरे जैसे न जाने कितने लोगों के मन भीतर तक भीग गए थे। आपने अपने दिल का वह कोना हमें दिखाया था, जिसमें संतुलन के अपने पसंदीदा खेल बेडमिंटन के अपने मित्र-खिलाड़ियों की करतूत से आपकी भावनाओं में पैदा हुए असंतुलन की बूंदें अब तक टपक रही हैं। आपने पहली बार अपने बहादुर पिता की आंखों में दिखे आंसुओं का ज़िक्र हमसे किया था और मासूमियत के साथ पूरी तरह बेलाग हो कर यह भी बताया था कि किस तरह गुज़री रात आपकी मॉ ने अपनी भीगी आंखों के साथ आपको आग़ाह किया है कि जिस सत्ता के पीछे दुनिया भागती है, दरअसल वह ज़हर है। कांग्रेस संगठन में अपने आठ बरस के तज़ुर्बे के बाद उस सुबह आपने हमें आश्वस्त किया था कि सत्ता की ताक़त के भले-बुरे को आप अच्छी तरह समझ गए हैं और अब कांग्रेस पार्टी ही आपका जीवन है।
कोई अभागा ही जयपुर के बाद आपकी नेकनीयती पर मोहित होने से बचा रह सकता था। मैं मानता हूं कि इन चार साल में आपने अपने इरादों को कांग्रेस की जाज़म पर उतारने में खुद कोई कोताही नहीं की है। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि आपके आसपास अपना कंटीला परकोटा ताने बैठे बहुत-से लोगों ने आपके पसीने को कांग्रेसी-खेत के बजाय पतनाले तक पहुंचाने के लिए भीतर-भीतर कैसी-कैसी नालियां खोद रखी हैं। जयपुर में अपने को पूरी तरह खोल कर रख देने की आपकी दरियादिली से चौकन्ने चांडालों ने कांग्रेस को मई-2014 के दिन दिखाने के लिए आपकी जैसी घेराबंदी की, उसे आप तब समझ नहीं पाए यह तो समझ में आता है। मगर उसके बाद के तीन बरस भी भला-बुरा समझने में कम पड़ गए, यह कोई कैसे समझे?
एक बात अब साफ़ है, राहुल जी! अपने द्वारपालों से अगर आप अब भी मुक्त नहीं हो पाए, अगर आपके दरवाज़़े पर उनकी सांकल अब भी चढ़ी रही और व्यक्तियों के प्रति निजी आग्रह-दुराग्रह की उनकी चालबाज़ियों से आप अब भी पीछा नहीं छुड़ा पाए तो आपकी लाख स्वेद-आहुतियों के बावजूद भारत के सियासी-यज्ञ में कांग्रेस का अश्वमेध इसी तरह हांफते-हांफते एक दिन दम तोड़ देगा। उन तमाम लोगों की शिनाख्त का वक़्त आ गया है, जो दूसरों को तो नमाज़ की अज़मत समझाते हैं और खुद अज़ान के बाद भी गुदगुदी रजाई से बाहर नहीं निकलते हैं। बंदरबांट में मशगूल लोगों की यह बागड़ तोड़े बिना कांग्रेस का खेत लहलहाने की उम्मीद मत कीजिए। कांग्रेस की वापसी का रास्ता तैयार करने के लिए इस खर-पतवार को अगर आप उखाड़ कर नहीं फेकेंगे तो कौन यह करेगा?
कांग्रेसजन के अहसास के छाले इसलिए नहीं फूटे हैं कि आपके मरहम पर उनका भरोसा अब भी क़ायम है। लेकिन यह छालों पर संजीदगी से गौ2र करने का समय है। अब यह समय बार-बार नहीं आएगा। कांग्रेस-राह में बांबियां खोजने के लिए आपको ज़माने भर में घूमने की ज़रूरत नहीं है। अपनी आस्तीनों को ही झाड़ कर देख लेना काफी है। प्रधानमंत्री बनने के तीन महीने बाद नरेंद्र मोदी ने शिक्षक दिवस पर विज्ञान भवन में एक दृष्टिहीन बालिका के सवाल पर जवाब दिया था कि ‘अगर मैं अनुशासित नहीं होता तो यहां नहीं पहुंच पाता। मैं सबसे काम लेता हूं। खुद से भी खूब काम लेता हूं।’ हमारी मुसीबत यह है, राहुल जी, कि हम आपसे तो खूब काम लेते हैं, लेकिन आप हमसे कोई काम नहीं ले पाते हैं। ऐसा इसलिए है कि आपके आसपास गाल बजाने वालों ने देश भर में लाखों कमेरों से आपको काट दिया है।
वरना क्या कारण है कि दादागीरी करने वालों के नेतृत्व गुणों की तो तारीफ़ हो रही है और आपकी सदाशयता की कोई चर्चा नहीं होती? लोग आपके बजाय किसी मोगाम्बो पर लट्टू क्यों हैं? क्यों लोगों को नहीं लगता कि आप भारत को बदलने का माद्दा किसी और से ज़्यादा रखते हैं? राहुल जी, लोक-आस्था को जीवित रखने के लिए नतीजों की परवाह किए बिना बहुत कुछ करना पड़ता है। जो अनिर्णय को ही निर्णय मानने की सलाह देते हैं, वे शुभचिंतक नहीं होते। युद्ध की किसी भी आचार-संहिता में कोई आस्था नहीं रखने वाले पनपते जाएं और सकारात्मकता पिछड़ती जाए तो इस दुर्भाग्य से देश को बचाने की ज़िम्मेदारी से आप बच नहीं सकते।
नेपोलियन को महान सेनापति माना जाता है। लेकिन वाटरलू की लड़ाई वह इसलिए हार गया कि अचानक पेट दर्द की वजह से उस दिन अपना सैन्य-अभियान वह चार घंटे देरी से शुरू कर पाया था। छोटी-सी ग़लतियों और ज़रा-सी देरी से महानतम लोगों का पराभव इतिहास ने कम नहीं देखा है। आपके पास आकर कोई कुछ भी कहे, लेकिन मैं मानता हूं कि यह कहने से मेरे कांग्रेसी-रक्त का गाढ़ापन और गहरा ही होता है कि नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी से टक्कर लेना लगातार मुश्किल होता जा रहा है और शंतरंज की इस बिसात पर अपने घुड़सवार बदलने में आप जितनी देर करेंगे, मंजिल उतनी ही दूर होती जाएगी। जो होना है, सो, हो चुका है; इसलिए जो करना है, अब कर डालें, राहुल जी, क्योंकि अब बहुत हो चुका है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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