एक बात तो सब कह रहे हैं कि राहुल गांधी ने पिछले एकाध महीने में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी और संसार के सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित अनिलचंद्र शाह को चकरघिन्नी बना दिया है। नरेंद्र भाई मोदी को हिमाचल प्रदेश के चुनाव में भले ही इसलिए मज़ा न आ रहा हो कि, उनके हिसाब से, कांग्रेस मैदान छोड़ कर भाग गई है और मुक़ाबला एकतरफ़ा हो गया है, मगर गुजरात के खो-खो ने उनकी सांसें फुला दी हैं। वह योद्धा ही क्या, जो हर हाल में छाती फुलाए न घूमे, सो, नरेंद्र भाई को भी अपना कर्तव्य निभाना है और अमित भाई को भी ताल से ताल मिलानी है, लेकिन यह तो उनका दिल ही जानता है कि उस पर क्या बीत रही है? ज़मीन पर पांव धरे बरसों गुज़रे। अब जाकर मखमली गलीचे के नीचे का खुरदुरापन भाजपा-नेतृत्व के तलवों को महसूस हो रहा है।
एकतंत्र जब-जब जनतंत्र को लीलता है, हुक़्मरानों पर गाज़ गिरती ही है। क्या आप एकबारगी बता सकते हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री कौन हैं? वे हैं विजय रूपानी। क्या आप जानते हैं कि गुजरात के भाजपा अध्यक्ष का नाम क्या है? उनका नाम है जितेंद्र भाई वघानी। क्या आप सचमुच सोचते हैं कि गुजरात विधानसभा का चुनाव विजय भाई और जितेंद्र भाई लड़ रहे हैं? ज़ाहिर है कि गुजरात में गिर रही गाज़ सीधे नरेंद्र भाई और अमित भाई पर गिर रही है। बेचारे विजय-जितेंद्र की जोड़ी को तो कोई जानता ही नहीं। अक्टूबर के अंतिम शनिवार भाजपा के राष्ट्रीय मुख्यालय में पत्रकारों को दीवाली-मिलन का उपदेश देते हुए राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र पर विमर्श की ज़रूरत का बखान करने वाले नरेंद्र भाई की भाजपा का यही असली सच है। इसी सच का नतीजा है कि साढ़े तीन साल बीतते-बीतते वह अपने उत्तुंग शिखर से इतनी तेजी से लुढ़क रही है।
भाजपा के मौजूदा कब्ज़ेदार यह भूल गए हैं कि उसका विस्तार आख़िर क्यों हुआ था और कैसे हुआ था? हिंदुओं के हृदय पर राज करने के लिए मारकाट मचा देने वाले हिंदुओं के हृदय सम्राट कभी नहीं बन पाए। हृदय-सम्राट तो सिर्फ़ वे बने, जो अपनी कवितामयी देह-भाषा के ज़रिए हिंदुओं के मन में भी हौले-से जा बैठे और जिन्हें देख कर अल्पसंख्यक समाज में भी ‘भागो-बचो’ की चीखें सुनाई नहीं दीं। आज किसी को भले ही लगता हो कि अपने घुड़सवारों के साथ रायसीना की पहाड़ियों को जीत लेने का पराक्रम ही ऐतिहासिक है, मगर घुड़चढ़ी के इस किस्से से बड़ी वह विजय-गाथा है, जिसने भाजपा की जड़ें परत-दर-परत मजबूत कीं।
मुझे नहीं मालूम कि दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी ने 1951 में जनसंघ का काम शुरू करने के बाद खुद को हिंदू हृदय-सम्राट बनाने के लिए कितनी मारधाड़ की? लेकिन मैं इतना जानता हूं कि जनसंघ में दीनदयाल जी ने 17 बरस कभी ऐसी पहलवानी नहीं दिखाई कि सब-कुछ उनकी जेब में रहे और 48 साल के अपने राजनीतिक जीवन में अटल जी ने भी कभी सब-कुछ अपनी मुट्ठी में भींच कर रखने की ललक नहीं दिखाई। जिन्होंने राजधर्म का पालन करने की अटल जी की सलाह को भी ठेंगा दिखा दिया, उनके प्रवचनों के झक्कू में देश के एक तिहाई मतदाता कुछ वक़्त के लिए आ ज़रूर गए थे, मगर अब वे पश्चात्ताप-मुद्रा में हैं। इसलिए आज का गुजरात दूसरी धुन गुनगुना रहा है।
सियासी-नफ़े को तोलने की चतुराई रखने वालों को एक बात समझने की ज़रूरत है। गोडसे के घनघोर हिमायती भी हमारे देश में गोडसे के नाम पर वोट मांगने का साहस तो नहीं दिखा सकते, लेकिन वीर सावरकर के पुजारी सावरकर के नाम पर वोट मांगने की हिम्मत क्यों नहीं करते? मुझे दीनदयाल जी से कोई गुरेज़ नहीं, लेकिन अगर वे भारतवासियों के दिलों पर इतना ही राज कर रहे हैं कि अब हर शिला उन्हीं के नाम से लगेगी तो भाजपा दीनदयाल जी के नाम पर वोट क्यों नहीं मांगती है? श्यामाप्रसाद मुखर्जी के बलिदान को सौ सलाम, मगर उनके नाम पर कितने लोग भाजपा को अपना वोट देने जाते हैं? 2014 की गर्मियों में ‘मोदी-मोदी’ पुकार रहे लोगों ने भाजपा को वोट दे दिए होंगे, लेकिन अपने दिल पर हाथ रख कर बताइए कि अब से दस साल बाद कितने हिंदुओं के हृदय उनके नाम से धड़केंगे? अटल बिहारी के नाम पर, हो सकता है कि, बीस-तीस साल बाद भी कइयों के मन भाजपा-मय हो जाएं। इसलिए, जिन्हें थोपी हुई लोकप्रियता और सहज-स्फूर्त लोकप्रियता में फ़र्क़ करना नहीं आता, उनकी दीवार पर जिसे अपना सिर फोड़ना हो, फोड़े।
अगर कोई आसमानी-सुल्तानी नहीं हुई तो गुजरात में सौराष्ट्र और कच्छ से ले कर उत्तर, दक्षिण और मध्य गुजरात तक दिसंबर के दूसरे-तीसरे हफ़्ते में भाजपा को इसलिए मुंह की खानी पड़ेगी कि वह अटल बिहारी वाजपेयी की नहीं, नरेंद्र भाई और अमित शाह की भाजपा है। और-तो-और, वह मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, शत्रुध्न सिन्हा और कीर्ति आज़ाद तक की भाजपा नहीं है। गुजरात तक में वह विजय रूपानी और जितेंद्र वघानी की भाजपा नहीं है। सौराष्ट्र-कच्छ की 54 सीटों में से ज़्यादातर पर पटेल समुदाय और पिछड़े वर्गों ने भाजपा की नाक में दम कर रखा है। मध्य-गुजरात की 68 सीटों पर आदिवासी और पाटीदार भाजपा की नींद उड़ाए हुए हैं। उत्तर-गुजरात की 32 सीटों पर भी ये दो समुदाय भाजपा के पैर नहीं टिकने दे रहे हैं। दक्षिण-गुजरात की 28 सीटों में से ज़्यादातर की राह में भी भाजपा के लिए कांटे बिछे हुए हैं। ऐसे में भी अगर इस बार वह सरकार बना लेती है तो मैं नरेंद्र भाई की जादूगरी के आगे नतमस्तक होने के अलावा क्या कर पाऊंगा! मगर जिस भाजपा के कण-कण में सिर्फ़ नरेंद्र मोदी बसे हैं, अगर वह गुजरात में ढेर हो गई तो हम ठीकरा फोड़ने के लिए क्या आनंदीबेन पटेल का सिर लाएंगे?
जिनके लिए सफ़र नहीं, सिर्फ़ मंज़िलें अहमियत रखती हैं, उनका वे जानें, मैं तो इतना जानता हूं कि जनतंत्र का जीवन अनगिनत अंधी पगडंडियों को रौंदता हुआ हमेशा आगे बढ़ता रहता है। सियासत में जो लोग अपने समय से संवाद नहीं करते हैं, वे लंबा रास्ता तय नहीं करते। यह राजनीति में से नीति को निकाल कर बाहर फैंकने का दौर है। लेकिन यह दौर लंबा नहीं चलने वाला। सियासी-तहज़ीब की कहानियां हमारी क़िताबों से इतनी आसानी से गु़म नहीं होने वालीं। इसलिए, आज भले ही यह बात बालू पर लिखी आशाओं जैसी लगे, मुझे पूरा यक़ीन है कि गुजरात से एक अंत की शुरुआत होने जा रही है–एकतंत्र के अंत की शुरुआत। राजनीतिक अनुदारता के अंत की शुरुआत। आप देखना, इस साल के अंत में हमारे प्रधानमंत्री की यह इच्छा पूरी होती दिखाई देने लगेगी कि देश को राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र की स्थिति पर गंभीरता से चर्चा करनी चाहिए। यह विमर्श भाजपा के भीतर से ही शुरू होगा। मुझे लगता है कि नए साल में भाजपा अपने मौजूदा ज़िस्म से बाहर आकर अंगड़ाई लेने लगेगी। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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