दिल्ली के नगर निगम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का मत-प्रतिशत हलका-सा गिरा है, आम आदमी पार्टी का मत-टोकरा तो आधे से ज़्यादा खाली हो गया है और कांग्रेस के मतों की झोली तीन गुनी भारी हो गई है। लेकिन तब भी देश की राजधानी मोदी-मय हो कर फुदक रही है। भाजपा के विरोधियों को ईवीएम की नेकनीयती पर फिर शक़ हो रहा है। उन्हें सकपकाने से ज़्यादा हकबकाने का हक़ है। वे पूछ रहे हैं कि ज़मीन पर जितना दिखता नहीं, उससे अधिक मत-मशीनें आख़िर कैसे उगल रही हैं? अपनी आंखें मसल-मसल कर देख रहे विपक्ष का दीदार कर दिल्ली तो दिल्ली, अब पूरा देश सिर खुजला रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीन बरस में भारत माता की जय के नारे तो खूब बुलंद हुए हैं, लेकिन उनके गले में उपलब्धियों की कोई नई जयमाला तो शोभा दे नहीं रही है। इन तीन साल में उद्योग-धंधे मुरझाए हैं, बेरोज़गारी बढ़ रही है, महंगाई पर काबू नहीं है और श्रीनगर से ले कर सुकमा तक बेचैनी हदें पार कर गई है। तो फिर मोदी अपनी भाजपा को चुनावों में जीत की एक-के-बाद-एक सौगातें कैसे दे रहे हैं? नोट-बंदी के बर्बर-दौर में भी देश दुम दबाए बैठा रहा। हर रोज़ निकाले जा रहे हज़ारों कामगारों की आहें भी कहीं सुनाई नहीं दे रहीं। बढ़ती कीमतों से भी कोई परेशान दिखाई नहीं देता। आंतरिक सुरक्षा के उड़ते परखच्चे भी किसी को नहीं चुभ रहे। मोदी जिस तिलस्मी गलीचे पर शान से पसरे उड़ान भर रहे हैं, उसका ताना-बाना सबकी समझ के बाहर है।
चारों तरफ़ या तो मोदी हैं या उनके हुक़्मबरदार अमित शाह। बाकी कोई हैं तो मोहन भागवत। चौथा कोई है ही नहीं। भारत के राष्ट्र-राज्य की समूची संचालन व्यवस्था का ऐसा मुट्ठीबंद चेहरा तो कभी किसी ने देखा ही नहीं था। यह मोदी का रहस्यलोक है, जिसमें लोक पूरी तरह ग़ायब है और तंत्र एक व्यक्ति की क़ैद में है। मोदी के महिमा-मंडन का शोर इसलिए कभी थमने नहीं दिया जाता है कि बाकी तमाम आवाज़ें सुनाई न दें। इसलिए 2014 की गर्मियों में लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद से विधानसभाओं के हों या नगर निगमों के और नगर पालिकाओं के हों या पंचायतों के, सभी चुनाव भाजपा नहीं, मोदी जीत रहे हैं। एक-एक क़दम जमा-जमा कर आगे बढ़ने वाली भाजपा के लिए यह बात डरावनी है। संगठन-शक्ति के बूते यहां तक पहुंची भाजपा एक व्यक्ति में विलीन होने के खतरे को अगर वक़्त रहते नहीं समझेगी तो बहुत बड़ी ग़लती करेगी।
यह मोदी का रहस्यलोक है, जिसमें लोक पूरी तरह ग़ायब है और तंत्र एक व्यक्ति की क़ैद में है। मोदी के महिमा-मंडन का शोर इसलिए कभी थमने नहीं दिया जाता है कि बाकी तमाम आवाज़ें सुनाई न दें।… तब मोदी ने कहा था कि मैं अभिजात्य नहीं हूं। मगर आज भारतीय सियासत के वे अकेले अभिजात्य हैं। वे भरत-भूमि पर एक नए मनुष्य की रचना करने के काम में लगे हैं। वे एक नया समाज गढ़ने के जुटे हैं। वे नई अस्मिताओं की स्थापना कर रहे हैं। वे सियासत की नई परिभाषा लिख रहे हैं। उनके इस नए संसार में किसी और के लिए कोई जगह नहीं है। उनके पास एक ही मंत्र है–यह होकर रहेगा, मैं यह करके रहूंगा। – twitter
राजनीतिक दल मूलतः जन-आदोलनों से जन्म लेते हैं। क़ामयाब आंदोलन उन मुद्दों के गर्भ में आकार लेते हैं, जिन्हें हज़ारों-लाखों लोगों का समर्थन हासिल होता है। कभी देश की आज़ादी मुद्दा था, कभी नव-स्वतंत्र देश का निर्माण मुद्दा था, कभी देश की अखंडता मुद्दा था, कभी मुल्क़ के जनतंत्र की हिफ़़ाज़त मुद्दा था, कभी हिंदू-गौरव की पुनर्स्थापना मुद्दा था, कभी बिरादरी मुद्दा था, कभी क्षेत्रीय अस्मिता मुद्दा था और कभी नई राजनीतिक व्यवस्था की शुरुआत मुद्दा था। इन तमाम मुद्दों में से किसी ने कांग्रेस को कांग्रेस बनाया और किसी ने जनसंघ को भाजपा बनाया। ऐसे ही मुद्दों ने सामाजिक न्याय का बिगुल बजाने वाले राजनीतिक दलों को शक़्ल दी और कट्टर-सोच रखने वाले सियासी गिरोहों को मज़बूत किया। लेकिन इतिहास हमें सिखाता है कि जो-जो राजनीतिक दल किसी एक व्यक्ति का पर्याय बनते गए, उनकी सांगठनिक पहचान का क्षरण होता गया और वे रंगमंच से ग़़ायब होते गए। सामूहिक नेतृत्व की अवधारणा ही राजनीति की बुनियादी ताक़त होती है। भाजपा जितनी तेज़ी से इससे दूर जा रही है, वह उसके लिए चिंताजनक हो-न-हो, उसे यहां तक पहुंचाने वाले उसके लाखों कार्यकर्ताओं के लिए तो फ़िक्र की बात होनी ही चाहिए।
कांग्रेस पर बीच-बीच में राजनीतिक शक्ति के केंद्रीयकरण को लेकर भले ही छींटे पड़ते रहे हों, मगर सवा सौ बरस में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि उसका कोई मुखिया पूरी तरह अपनी मनमानी चला पाया हो। आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू से ले कर अब तक के सारे कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों और पार्टी अध्यक्षों में से किसी की भी बात कभी पत्थर की लकीर नहीं हो पाई। नेहरू के ज़माने में ऐसे दर्जनों लोग थे, जो बहस करके उनकी राय बदलने का माद्दा रखते थे। कई चंद्रशेखर और मोहन धारिया थे, जिनकी युवा-तुर्क भूमिका इंदिरा गांधी के लिए लक्ष्मण-रेखा का काम करती थी। सवा चार सौ लोकसभा सीटों के साथ साउथ ब्लॉक पहुंचे राजीव गांधी मनमानी कर सकते तो विश्वनाथ प्रताप सिंह को वापस मांडा रियासत भेजने की कूवत रखते थे। पामुलपर्ति वेंकट नरसिंह राव और सीताराम केसरी की मनमानी चली होती तो कांग्रेस कभी की तिरोहित हो गई होती। लेकिन तब नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह जैसी संतुलन शक्तियां थीं। सोनिया गांधी अठारह साल से अपनी मनमानी कर रही होतीं तो 1998 के बाद कांग्रेस को अंधी खोह से बाहर लाकर सŸाानशीन नहीं कर पातीं।
लेकिन आज भाजपा में कौन है, जो मोदी तो मोदी, अमित शाह के सामने भी मुंह खोल कर बात कर सकता हो? भाजपा को भाजपा बनाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी आज कुछ बोल पाते तो लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे पुरोधाओं की ज़ुबान पर पड़े तालों को कोस रहे होते। राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज जैसे पराक्रमियों की क़दमताल पर लानत भेज रहे होते। अरुण जेटली को अपने प्रधानमंत्री और पार्टी-अध्यक्ष को खरी सलाह देने की सलाह दे रहे होते। सामूहिक प्रतिभा का भाजपा में अकाल नहीं है, लेकिन उसे मोदी ने इतना भोथरा बना दिया है कि वह अर्थहीन हो गई है। ऐसा करने का नतीजा क्या होता है, यह आम आदमी पार्टी के पतन से समझें। दनदनाते हुए छाने के बाद अगर वह अरविंद केजरीवाल के चंगुल में इस तरह न समा गई होती तो इतनी जल्दी अंतिम हिचकियां नहीं ले रही होती। हल्ला बोल कर एकबारगी कब्ज़ा कर लेने भर से कोई राजनीतिक दल दीर्घजीवी नहीं हो जाता है।
इसलिए अकेले नरेंद्र मोदी की तदबीरों से भाजपा की तक़दीर का सितारा हमेशा चमकता नहीं रह सकता। प्रधानमंत्री बनने के बाद लालकिले से अपने पहले भाषण में मोदी ने सबको साथ लेकर चलने का वादा किया था। लेकिन फिर वे अकेले ही चल पड़े और ऐसे चले कि अपने आसपास से सबको छिटक कर दूर कर दिया। उस भाषण में मोदी को यह दर्द साल रहा था कि वे दिल्ली में बाहरी हैं। फिर वे ऐसे भीतरी हुए कि आज उनके सभी हमजोलियों को बाहरी होने की पीड़ा है। तब मोदी ने कहा था कि मैं अभिजात्य नहीं हूं।
मगर आज भारतीय सियासत के वे अकेले अभिजात्य हैं। वे भरत-भूमि पर एक नए मनुष्य की रचना करने के काम में लगे हैं। वे एक नया समाज गढ़ने के जुटे हैं। वे नई अस्मिताओं की स्थापना कर रहे हैं। वे सियासत की नई परिभाषा लिख रहे हैं। उनके इस नए संसार में किसी और के लिए कोई जगह नहीं है। उनके पास एक ही मंत्र है–यह होकर रहेगा, मैं यह करके रहूंगा। प्रचार-तंत्र के उनके ढपोरशंखी मोहरे पिछले तीन साल में मोदी को असलियत से कितने कोस दूर ले आए हैं, इसे वे आज समझें-न-समझें, लेकिन जल्दी ही समझ जाएंगे। आज जिन्हें लगता है कि यह देश ऐसे ही मोदी में अपना मुकद्दर खोजता रहेगा, वे इस तथ्य से निग़ाहें फेर रहे हैं कि दो तिहाई भारतीय मतदाता आज भी उन्हें अपना भाग्य-विधाता नहीं मानते हैं। एकजुट विपक्ष से सामना होते ही मोदी का जादू जाता रहेगा। लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।
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