क़रीब चालीस साल पहले आई फिल्म ‘ग़बन’ ने हमें बताया था कि माया-नगरी मुंबई के सीने में दरअसल जलन और आंखों में तूफ़ान बसा हुआ है और बावजूद इसके कि इस शहर में हर शख्स परेशान-सा है, उसके दिल ने शायद धड़कना बंद कर दिया है, वरना वह पत्थर की तरह ऐसा बेहिस-ओ-बेजान क्यूं होता! फिर भी मैं तो सोचता था कि मुंबई में इतने प्राण तो अब भी बाक़ी होंगे कि वह पूरे देश की अर्थव्यवस्था को अंधेर नगरी के हवाले करने के लिए ज़िम्मेदार माने जा रहे चौपट राजा के नुमाइंदों को अपनी महानगरपालिका के चुनावों में हिंद महासागर के हवाले कर देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बीस बरस में हवा इतनी बदल गई कि 1997 में सिर्फ़ 26, 2002 में 35, 2007 में 28 और पिछली बार 2012 के चुनाव में 31 सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी इस बार 81 सीटें जीत गई। यानी पिछली बार से तक़रीबन ढाई गुनी से भी ज़्यादा। वह भी तब, जब हमेशा की तरह इस बार वह शिवसेना के साथ मिल कर चुनाव नहीं लड़ रही थी और उद्धव ठाकरे ने भाजपा की पोल-पट्टी खोलने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी थी।
शिवसेना को करना है तो इस बात से संतोष कर ले कि उसे पिछली बार से आधा दर्जन ज़्यादा सीटें मिल गई हैं। लेकिन भीतर का सच तो यही है कि 1997 के 103 से गिर कर आज वह 84 के आंकड़े पर पहुंच गई है। आज के हालात ये हैं कि भारत की आर्थिक राजधानी में महानगरपालिका पर कब्ज़ा करने के लिए ज़रूरी बाक़ी 30 सदस्यों का इंतज़ाम अगर उद्धव कर सकते हैं तो अमित शाह और देवेंद्र फडनवीस को भी तो 33 ही पार्षदों को अपनी झोली में लाना है। इसलिए ताज़ा दौर की जनतांत्रिक ज़रूरतों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुंबई पर शिवसेना का तकनीकी राज होगा या भाजपा का। असली बात तो यह है कि मुंबई ने यह साबित कर दिया है कि जनतंत्र में लोकप्रियता के पारंपरिक पैमाने अब पुराने पड़ गए हैं।
मुंबई की महानगरपालिका पर पिछले दो दशक में कांग्रेस का राज भले न रहा हो, लेकिन उसे 1997 में 48, 2002 में 61, 2007 में 76 और 2012 में 51 सीटें मिली थीं। इस बार वह बीस साल की सबसे कमज़ोर स्थिति में है और 31 पर ही रह गई। ज़ाहिर है कि अब हार के कारणों पर मंथन होगा। हार के जिन कारणों का दिव्य-ज्ञान हमें बाद में प्राप्त होता है, वे दिखने तो बहुत पहले से लगते हैं। लेकिन तब हमारी वैयक्तिक और सामूहिक अंतःचेतना, पता नहीं, किन कारणों से गुम हो जाती है।
बहरहाल, मुंबई और महाराष्ट्र के ताज़ा निकाय और ज़िला परिषद चुनावों से सामने आए नतीजों के बहाने मैं कुछ बुनियादी मसले रेखांकित करना चाहता हूं। आख़िर भाजपा 10 में से 8 निकायों में सबसे आगे कैसे हो गई? आख़िर कांग्रेस इनमें से चार में और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सात में सिर्फ़ एक अंक तक कैसे सिमट गई? पवार को खुद के अमरावती में एक भी सीट नहीं मिले तो किसे हैरत नहीं होगी? 11 में से 3 िज़ला परिषदों पर भी भाजपा ने कब्ज़ा कर लिया। ठीक है कि कांग्रेस भी दो िज़ला परिषदों में जीती और एक में भाजपा के एकदम बराबरी पर रही और राकांपा ने भी दो में जीत हासिल की, लेकिन दोनों की ज़मीन पहले से तो पोली ही हुई है। भाजपा की छलांग, शिवसेना के ठहराव और कांग्रेस की लुढ़कन के इस दृश्य के पीछे कौन-सा रहस्यलोक है?
ऐसा इसलिए हुआ कि ख़ासकर शहरों में आज की पीढ़ी को वैश्विक परिदृश्य और आर्थिक विकास की सच्चाइयों से रत्ती भर भी लेना-देना नहीं है। वह सिर्फ़ उपभोग के आनंदवाद को गांठ बांधे घूम रही है। इसलिए, जो युवा तबके के भरोसे यह उम्मीद पाले हुए थे कि वह मंदी की तरफ़ तेज़ी से जा रहे मुल्क़ की नैया को डोलने से बचाने को हाथ-पांव मारेगा, अपने को ठगा पा रहे हैं। इक्कादुक्का को छोिड़ए, लेकिन मोटे तौर पर आज के युवा गंभीर प्रश्नों की खाट पर चिंता में करवट बदलने के बजाय तमाशों की गुदगुदी सेज़ पर सोना पसंद करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो फ़सादों पर अपनी रोटियां सेकने वाले देखते-देखते हमारे रहनुमा नहीं बन बैठते।
मुंबई के नतीजों ने हमें बताया है कि हम उन पर रीझे हुए हैं, जो भारत की टूटी टांगों और पिचके गालों के बारे में हमें कुछ बताने के बजाय हमारे आंगन में इंद्रसभा उतार लाने का सपना परोसते हैं। यह आसमानी-ख्वाब हमें अपनी ज़मीनी-सच्चाई से आंख चुराने में मदद करता है। हमें इसी में सहूलियत है। हमारे रहनुमा हमारी इस कमज़ोरी को अच्छी तरह समझ गए हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि इतिहास निर्मम होता है और सिर्फ़ उन्हें याद रखता है, जिन्होंने अलोकप्रिय होने का जोखिम उठा कर भी अपने लोगों को आईना दिखाया हो। राजनीति की मृगतृष्णा के पीछे सरपट भाग रहे किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल से हकीक़त का चेहरा तलाशने की आस पालने के दिन लद गए। ऐसे में अगर कबूतर भी खुद ही जाल में कूदने को तैयार बैठे हों तो आप अकेले बहेलियों को दोष नहीं दे सकते।
कौन नहीं जानता कि शब्दों की तुकबंदी से देश नहीं बनते! लेकिन फिर भी हम सियासी तुकबंदियों की तान पर नाच रहे हैं। कौन नहीं जानता कि फटेहालों के दर्द से ज़्यादा जिन्हें अपने कपड़ों की फ़िक्र हो, वे देश नहीं बनाते! लेकिन फिर भी हम परिधानों के रंग-समन्वय पर अपने को निछावार किए हुए हैं। हमें इस पर गुस्सा कहां आता है कि किसानों के भले के लिए क़ानून नहीं बनता; कि मज़दूरों के अधिकारों को ख़त्म कर दिया जाता है और इसे हम श्रम सुधार कहते हैं; कि पत्रकारिता बेतरह बदशक़्ल होती जा रही है और हम कुछ नहीं कर सकते; और लोकतंत्र के नायक अब हम नहीं, विज्ञापन एजेंसियां गढ़ती हैं और उन्हीं को ढोने के लिए हम अभिशप्त हैं।
नीति शतक कहता है कि समय पर चूक जाना ही सबसे बड़ी हानि है। इस नाते मुंबई इस बार चूक गया। यह जनतंत्र का हानि है। लेकिन नरेंद्र मोदी नहीं चूके। अमित शाह नहीं चूके। भाजपा नहीं चूकी। सो, उन्हें यह भौतिक-लाभ मिला। मजमे की असली समस्याओं के समाधान से भाजपा को कोई लेना-देना हो, न हो; डमरू बजा कर मजमा इकट्ठा करने की कला तो उसे आती ही है। रमज़ान और क़ब्रिस्तान से चल कर कसाब तक पहुंचा दी गई सियासी घुड़दौड़ में जनमत का सट्टा तो उन्हीं घोड़ों पर लग रहा है, जो दौड़ में आगे निकलते दिखाई देते हैं।
सफल होने और सम्माननीय होने में फ़र्क है। भाजपा फ़िलहाल सफल है। लेकिन वह कितनी सम्माननीय है, मालूम नहीं। लोकप्रिय होना और महान होना भी दो अलग-अलग बातें हैं। अपनी भाजपा को हर कीमत पर, हर जगह, जिताने की ज़िद में सियासी-मूल्यों की सीढ़ियां धड़घड़ाते हुए उतर रहे नरेंद्र मोदी अब भी लोकप्रिय तो हैं। लेकिन वे कितने महान हैं, मालूम नहीं। किसी भी देश और समाज के जीवन में जादू बिखेरने का काम तमाशा दिखाने वाले नहीं, संजीदगी से अपना िज़म्मा निभाने वाले करते हैं। ‘मुन्नी की बदनामी’ और ‘शीला की जवानी’ सारे कीर्तिमान भले ही तोड़ दें, लेकिन मल्लिकार्जुन मंसूर और कुमार गंधर्व से भला इनकी कोई तुलना है? हनी सिंह के साथ ठुमका लगाने वालों की शायद कभी कोई कमी नहीं होगी, मगर इस आधार पर एम.एस. सुब्बूलक्ष्मी को गया-बीता मानने वालों के सुर में सुर मिलाने को मैं तो तैयार नहीं हो सकता। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
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