राहुल गांधी की कांग्रेस का सुंदरकांड शुरू – Global India Investigator

राहुल गांधी की कांग्रेस का सुंदरकांड शुरू

दो दिन बाद राहुल गांधी 132 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष का चुनाव-नामांकन दाख़िल करेंगे और, जैसी कि उम्मीद है, इस मंगलवार को उनके निर्विरोध चुने जाने का ऐलान हो जाएगा। दस साल पहले वे पार्टी के महासचिव बने थे और चार साल पहले वे उपाध्यक्ष बनाए गए। 2013 की शुरुआत में कांग्रेस-उपाध्यक्ष बनने के बाद दो बरस तक कइयों को यह लगता रहा कि शायद उन्हें फ़ैसले लेने की पूरी आज़ादी नहीं है, मगर पिछले दो साल से सबको यह मालूम है कि उनके हाथ पूरी तरह खुले हुए हैं। सो, कांग्रेस-अध्यक्ष बनने की औपचारिकता भले ही दो दिन बाद पूरी होगी, कांग्रेसजन का मन उन्हें दो साल से अध्यक्ष ही माने बैठा है।

इसलिए मंगलवार के बाद सबसे बड़ा बदलाव जो आना है, वह यह है कि इस महती ज़िम्मेदारी की वजह से राहुल खुद को बुज़ुर्गियत के अहसास में लिपटा पाएंगे। यह मुक़ाम हासिल करने के लिए उन्होंने पिछले एक दशक में कम पसीना नहीं बहाया है। मगर उनके पसीने की बूंदे अब जा कर लोगों के भीतर उतरी हैं। अब जा कर यह हुआ है कि उनके बारे में तरह-तरह के सवाल लिए घूम रहे लोग निरुत्तर हैं। उनकी सियासी-क्षमता पर प्रायोजित-सवालों के सारे दाग़ ऐसे ही नहीं धुले हैं। राहुल ने इसके लिए अपने को क़दम-ब-क़दम तराशा है। पिछले छह महीने में राहुल का रूपांतरण देख कर वे भी चकित हैं, जो हर सुबह उठ कर पहला काम राहुल की वज़ह से कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य पर पूर्ण-विराम लगाने का किया करते थे।

राहुल एक ऐसे समय में कांग्रेस की कमान संभाल रहे हैं, जब उनके सामने की चुनौतियां बेहद घनघोर हैं। ठीक है कि कांग्रेस पिछले कुछ महीनों से उठाव की तरफ़ है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बीहड़ता से निपटना खाला जी का खेल नहीं है। फिर भी गुजरात में राहुल ने मोदी-शाह की नाक में दम कर दिया है और कांग्रेस सरकार बनाने की दहलीज़ के नज़दीक खड़ी दिख रही है। हिमाचल प्रदेश को तीन-चार महीने पहले तक भारतीय जनता पार्टी की गोद में मानने वाले वहां के मतदान के बाद दूसरे सुर में हैं। इसलिए इतना तो तय है कि कांग्रेस-अध्यक्ष बनने के दो हफ़्ते बाद आने वाले इन दो राज्यों के चुनाव नतीज़ो से राहुल की शान में चार नही तो दो चांद तो लग ही जाएंगे। मगर बावजूद इसके राहुल को उनकी आमागी राह में रेशम के गलीचे बिछे नहीं मिलने वाले।

सबसे पहले तो राहुल को वह सुई-धागा लेकर बैठना होगा, जो कांग्रेस के भीतरी संगठन की तुरपाई कर सके। उन्हें कांग्रेसी चादर पर नई कसीदाकारी भी करनी है। हर शाख़ पर बैठे चेहरों में से बहुतों को विदा-भोज देना है, बहुतों की लिपाई-पुताई करनी है और बहुत-से नए चेहरे तलाशने हैं। यह काम अगलियों-बगलियों की प्रयोगशालाओं के ज़रिए हो सकता तो कब का हो चुका होता। इसे तो अब राहुल को स्व-विवेक से ही करना होगा। अपने ईमानदार झरोखों का आकार और तादाद बढ़ाए बिना यह नहीं होगा। अनुभव, परंपरा, निष्ठा, नई लय, नई ऊर्जा और नए विचारों की मिली-जुली पतवार ही कांग्रेसी-नैया के भविष्य का बीज-मंत्र हो सकती है। अब जब राहुल खेवनहार हैं तो अपनी पतवार की संरचना भी उन्हें खुद ही करनी होगी। ठेकेदारों के भरोसे ये काम नहीं होते।

राहुल के सामने एक-के-बाद-एक आने वाले प्रादेशिक चुनावों की चुनौती भी है। अगले आम चुनाव भी सोलह क़दम ही दूर हैं। पूरा होने में भले ही कुछ देर लगे, लेकिन लोकसभा में कांग्रेस के लिए आज से पांच गुना ज्यादा सांसद जुटाने का लक्ष्य लेकर भी राहुल को चलना है। राजनीति में उनके तेरह साल की ऊंच-नीच देखने के बाद आज मैं यह मानता हूं कि राहुल में पांच बुनियादी गुण हैं। एक, वे बे-खौफ़ हैं। दो, वे अर्थवान हैं। तीन, वे धुनी हैं। चार, वे विनम्र हैं। पांच, वे देशज हैं। इसलिए मुझे उम्मीद है कि कांग्रेस-अध्यक्ष की आसंदी पर बैठते ही उनके संस्थागत ढांचे में पांच व्यावहारिक गुणों का स्वाभाविक विकास भी तेज़ी से हो जाएगा। वे मिलने-जुलने की प्रक्रिया का मकड़जाल सरल और विरल बना देंगे। वे सुनने और गुनने की परंपरा के पालन पर ज़ोर देंगे। वे कानाफूसी में माहिर कनखजूरों से मुक्त व्यवस्था का श्रीगणेश करेंगे। वे सेंधमारों से सावधानी का संदेश देंगे। वे कांग्रेस के आत्मतत्व को नई वैज्ञानिकता के साथ आगे ले जाने की ठोस नींव डालेंगे।

राहुल का कांग्रेस-अध्यक्ष बनना सिर्फ़ अपनी पार्टी का मुखिया हो जाना भर नहीं है। यह भारत की भावी राजनीति में मील का वह पत्थर है, जो अगले तीन-चार दशक की दिशा तय करेगा। जिन्होंने 2014 के चुनाव को राहुल-बनाम-मोदी बनाने में रात-दिन एक कर दिए थे, आप देखना, वे ही लोग 2019 में रात-दिन एक करेंगे कि चुनाव कहीं मोदी-बनाम-राहुल न हो जाए। समय के पहिए ने उलटा घूमना शुरू कर दिया है। राहुल का औपचारिक तिलक इस रफ़्तार को इस कदर बढ़ाएगा कि सब सन्न रह जाएंगे। साढ़े तीन साल से हालात से सहमे बैठे लोगों में राहुल ने यह भरोसा पैदा कर दिया है कि हालात बदलते हैं, हालात ठहरा नहीं करते।

सोनिया गांधी से अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी ग्रहण करते वक़्त राहुल गांधी अगर उनकी कुछ बातें अपनी गांठ में बांध लेंगे तो उनकी अगुआई में कांग्रेस संसद में 272 का आंकड़ा जल्दी पार करेगी। सोनिया ने भी अपने समय के बीहड़ में ही प्रवेश किया था और वे नई ज़मीन तोड़ने का उद्यम हमेशा करती रहीं। उन्होंने दृढ़ता के साथ क़दम बढ़ाएं, मगर निर्ममता को कभी नज़दीक नहीं फटकने दिया। उन्होंने अपने को पार्टी की भीतरी भीड़ के स्वार्थी उन्माद और लालसा से दूर रखा। भावनात्मक लगाव और संवेदनात्मक स्पर्श की अहमियत का अहसास उनकी सबसे बड़ी पूंजी रही। अध्यक्ष पद संभालते वक़्त सोनिया सिर्फ़ 52 वर्ष की थीं, मगर उनके भीतर के अभिभावकपन ने उन्हें इतना बड़ा बना दिया कि वे चरमराती कांग्रेस को अंधी खाई से बाहर खींच लाईं। उनकी किसी से होड़ नहीं थी, इसलिए इन 19 बरस में जिस-जिस ने उनसे होड़ ली, वे सब भी अंततः सोनिया का बड़प्पन स्वीकारते गए।

कठोपनिषद कहता है कि सारथी तो खुद का मन ही होता है। मन ही सब तय करता है। क्या करना है, क्या नहीं; क्या ग्रहण करना है, क्या छोड़ना है। जो अपने मन से सब करते हैं, सफल होते हैं। जो अपने जीवन का रथ दूसरे सारथियों के हवाले कर देते हैं, वे भटकते हैं। इसीलिए हमारे बुजु़र्ग कहते थे कि सुनो सब की, फिर उसे गुनो और तब वो करो जो खुद का मन कहे। आज के सियासतदॉ कुछ भी कहें, लेकिन उपनिषदों के सार-तत्व की अनदेखी कर कलियुगी राजनीति करने वाले भी गच्चा ही खाते हैं। यह अच्छा हुआ कि राहुल की शुरुआत लोगों के उन पर लट्टू होने से नहीं हुई। इससे यह हुआ कि उनके आकलन में कोई जल्दबाज़ी नहीं हुई। आज उनके बारे में जो राय है कि वह हर तरह की ठोक-पीट के बाद बनी है। इसलिए अच्छा है कि वे दो साल पहले नहीं, आज कांग्रेस के अध्यक्ष बन रहे हैं। कांग्रेस को नए सिरे से बनाने का यही सही समय है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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