राहुल गांधी ने कैलीफोर्निया के बार्कले में वंशवाद पर कहा कुछ और भारतीय जनता पार्टी के दिग्गजों को समझ में आया कुछ। तोड़मरोड़ की सियासत के उस्तादों ने चैनल-पर्दों और अख़बारी पन्नों पर अपने कुतर्कों की मूसलाधार शुरू कर दी। राहुल ने राजनीति समेत भारतीय समाज के ज़्यादातर कर्म-कांड में वंशवादी प्रवृत्ति की नकारात्मकता को उजागर किया था। उसे एक समस्या बताया था। मगर संघ-नज़रिए से ओतप्रोत महामनाओं ने रट पकड़ ली कि राहुल वंशवाद को ठीक ठहरा रहे थे और परदेस में देश की बदनामी कर रहे थे।
यह बात वे लोग कह रहे थे, जिनके पूज्य नरेंद्र भाई मोदी ने परदेसी धरती पर एक बार नहीं, बार-बार यह बताया है कि कैसे उनका देश भारत वंशवादी-मोह रखने वालों से ले कर हेराफेरी की प्रवृत्ति, चोरी की आदत और काले धन के संग्रह की ललक पाले लोगों से भरा पड़ा है। विदेशों में भारत की परतें उधेड़ने का यह काम उन्होंने प्रधानमंत्री होते हुए किया। अपनी हर विदेश यात्रा में नरेंद्र भाई ने ऐलान किया कि इन बुराइयों से लड़ने के लिए उन्हें गंगा ने बुलाया है, वे देश को दुरुस्त करने में लगे हैं और कर के ही दम लेंगे।
राहुल ने तो बार्कले में यह बताया कि 70 साल में भारत ने कैसे एक-एक कदम आगे बढ़ाया, तरक़्की की और दुनिया में अपनी जगह बनाई। नरेंद्र भाई तो दुनिया भर में बताते घूम रहे हैं कि 67 साल में उनके देश में कुछ हुआ ही नहीं और अब तीन-साढ़े-तीन बरस से ही भारतीयों को अपने भारतीय होने पर गर्व होने लगा है, वरना अभी तक तो वे शर्म से मरे जा रहे थे। राहुल ने तो कांग्रेस-मुक्त भारत की स्थापना के लिए तलवारबाज़ी कर रहे नरेंद्र भाई के लिए कहा कि वे मेरे भी प्रधानमंत्री हैं, मुझसे अच्छा भाषण देते हैं और जनसभाओं में आने वाले अलग-अलग वर्गों तक अपना संदेश बेहतर तरीके से पहुंचाने में माहिर हैं। इस पर भी मोदी-सरकार के दर्जनों मंत्री, भाजपा के बीसियों पदाधिकारी और पार्टी के चपल-चंचल प्रवक्ता क्यों इतने लाल-पीले होते रहे, मैं तो समझ ही नहीं पाया!
पिछले कुछ समय से भाजपा मानने लगी है कि दुनिया भर में बसे भारतवंशी उसकी गोद में पड़े हैं। उन्हें अगले आम चुनाव में वोट का अधिकार देने की संघ-सलाह भी अब किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अमेरिकी भारतवंशियों से मिलने जा कर राहुल ने तालाब के पानी को हिला दिया है। संघ-कुनबे के कई समूह अलग-अलग देशों में अलग-अलग बहानों से भारतवंशियों के बीच सियासी-पैठ बनाने का काम अरसे से कर रहे हैं। अब राहुल गांधी ने वर्षों से अलसाई पड़ी इंडियन ओवरसीज़ कांग्रेस को झकझोर कर उठा दिया है। उनकी अमेरिका यात्रा इस सिलसिले का आगाज़ है। संघ के सेनानियों का इससे फिक्रमंद हो कर ताताथैया करना स्वाभाविक है।
नरेंद्र भाई को यह भी सालता होगा कि भरी-पूरी सरकार का स्वामी होने के बावजूद उनके पास आधुनिक तो छोड़िए, समकालीन वैश्विक दृष्टिकोण रखने वाली प्रतिभाओं का इतना अकाल है। उन्हें अपना काम संघ से उधार लिए राम माधव नुमा पुरातन-वेत्ताओं से चलाना पड़ता है। यही वजह है कि तमाम व्यक्तिपरक हो-हल्ले के बाद ‘मोदी-मोदी’ की प्रायोजित गूंज भले ही विदेशों के महाकाय सभागारों में सुनाई दे गई हो, लेकिन साढ़े तीन साल से चल रही भारत-सरकार के ‘सबका साथ-सबका विकास’ पर न तो भारतवंशियों के बौद्धिक वर्ग का भरोसा जमा है और न ही विदेशी अकादमिक विषेशज्ञों का। पिछले साल भर में भारतीय अर्थव्यवस्था की टूटी कमर देख-देख कर दुनिया भर के भारतवंशी सकपकाए हुए हैं। उन्हें पता है कि कोई भी गप्पू-बाम देश को अगले तीन-पांच साल तो तक इस कमर-दर्द से छुटकारा नहीं दिला पाएगी।
इसलिए राहुल का अमेरिका जा कर देश की ताज़ा अर्थनीति पर खुल कर बोलना उन्हें कैसे सुहाएगा, जो पिछले हज़ार से भी ज़्यादा दिनों से आरती का थाल लिए घूम रहे हैं? मीडिया-मंचों पर दिखाई दे रही दक्षिणमुखी छटपटाहट अभी तो और बढ़ने वाली है। राहुल की रोक-थाम के लिए कंटीले तार बिछाने का काम अब और तेज़ी से होगा। नरेंद्र भाई और उनके प्रधान सेनापति अमित भाई शाह की चिंताएं गुजरात के विधानसभा चुनाव ने इतनी बढ़ा दी हैं कि हमारे आने वाले महीने भाजपा की आंय-बांय-शांय का नज़ारा देखने में ही गुज़रेंगे।
कहने को भले ही भाजपा कहती हो कि राहुल गांधी अगर कांग्रेस के अध्यक्ष बन जाएंगे तो उसकी राह और आसान हो जाएगी। मगर मन-ही-मन भाजपा जानती है कि अब तक राहुल के सियासी-अनमनेपन के किस्से सुना-सुना कर ही वह अपनी सूरमाई दिखाती रही है। जिस दिन कांग्रेसी शिखर से ऊहापोह के ये बादल छंट जाएंगे, उस दिन दलीलों का एक ज़खीरा भाजपा के हाथ से छिटक जाएगा। सो, अमेरिकी दौरे में राहुल के मुह से पहली बार यह साफ़-साफ़ सुन कर कइयों की हकलाहट बढ़ गई है कि वे कांग्रेस की कमान पूरी तरह संभालने को तैयार हैं। ज़िम्मेदारी का पूरा बोझ सिर पर आते ही राहुल की कार्यशैली में आने वाले ठोस बदलाव के लक्षण दिखाई भी देने लगे हैं। राहुल को सिर्फ़ तीन काम ही तो करने हैं। एक, राजनीतिक अभियानों की निरंतरता बनाए रखनी है। दो, लोगों और अपने बीच बैठे दरबानों से बेमुरव्वत रहना है। और तीन, 2012 में कांग्रेस के भीतर जिस अहंकार के आ जाने का ज़िक्र उन्होंने बार्कले में किया है, उससे मुक्ति के हवन में, जितनी जल्दी हो सके, पहली आहुति डालनी है।
इसके बाद राहुल गांधी को कौन रोकने वाला है? नरेंद्र भाई तो अपने शब्दों और इरादों पर देशवासियों का भरोसा जबरन पैदा करने में पसीना-पसीना हो गए हैं। कांग्रेस के इरादों पर देश के सहज विश्वास का तो लंबा इतिहास है। कांग्रेस लोगों के इस विश्वास पर सदा खरी उतरी है कि राज्य-व्यवस्था हर हाल में सर्व-समावेशी और लोकतांत्रिक ही होगी। राज्य-व्यवस्था ग़रीबों और वंचितों की पीठ पर हंटर बरसा कर अट्टहास करने वाली नहीं, उनके आंसू पोंछने के लिए सब-कुछ न्योछावार करने वाली होगी। राहुल के कमान संभालते ही कांग्रेस एक झटके में उनका सामना करने के लिए खड़ी हो जाएगी, जो आज मानव-सेवा के नकली तमगे लगाए घूम रहे हैं।
नरेंद्र भाई और उनके हुक़्म-बरदारों ने हमारे जनतंत्र को बहसीला तो बना दिया है, सपनीला तो बना दिया है, लेकिन उसे अपने सिद्धांतों के प्रति शर्मीला बनाने में उनकी दूर-दूर तक दिलचस्पी नहीं है। राहुल ने सकुचाते-सकुचाते सवालों का एक छोटा-सा कंकर क्या उछाला, भाजपाई इमारत के शीशे इस कदर चटखने लगे कि एक ही सुबह सारे हिंद-केसरी बाहें चढ़ाए बाहर आ गए। ऐसी-ऐसी स्मृतियां कौंधने लगीं कि पूरे तीन दिन हाहाकार होता रहा। जिन्हें लगने लगा था कि कांग्रेस नकार दी गई है, वे अब अपनी ठोड़ी पर हाथ धरे भाजपा के नकार की आहट सुन रहे हैं। मन की एक-एक बात के साथ नरेंद्र भाई लोगों के मन से एक-एक पायदान नीचे उतरते दीखने लगे हैं। आगत के आसार संघ-प्रमुख मोहन भागवत के माथे की सलवटें भी बढ़ाने लगे हैं। ऐसे में जब एक कंकर से यह हाल है तो उस दिन क्या होगा, जब कांग्रेस पूरी तबीयत से एक पत्थर आसमान की तरफ़ उछाल देगी! वह दिन नज़दीक आता जा रहा है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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