अगर उत्तराखंड के बाद अब अरुणाचल प्रदेश में हुई थू-थू के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह को अपने कर्म भीतर से नहीं कचोट रहे हैं तो फिर, मुझे लगता है कि, भारत के ही करम फूटे हुए हैं। अपने लोकतंत्र की दुनिया भर में दुहाई देने वाला कौन देश अपने सत्तारूढ़ दल के सिंर पर ऐसे सींग देखना पसंद करेगा, जो जम्हूरियत की चादर को ही तार-तार करने पर तुले दिखाई देते हों? जिस मुल्क़ के सर्वोच्च न्यायालय को छह महीने में एक नहीं, दो-दो बार, हुक्मरानों को जम्हूरी-तमीज़ से पेश आने की सख़्त हिदायत देनी पड़े, वहां की सियासी आबोहवा पर अगर अब भी बहस शुरू नहीं होगी तो कब होगी?
नए-नए मुल्लाओं के ज़्यादा प्याज खाने के क़िस्से हमने बहुत सुने हैं। मोदी के लिए पूरे देश की सरकार का मुखिया बन जाना अनोखा हो सकता है। अमित शाह तो भाजपा का मुखिया हो जाने पर ‘दे ताली तरंग से सराबोर न होते तो हैरत होती। दोनों ही मामलों में यह स्वाभाविक है। लेकिन एक राजनीतिक दल के नाते भाजपा का बाल्य-काल तो कब का जा चुका है! सरकार की असली डोरियां आज भले ही बचकाने हाथों में हों, लेकिन नितिन गड़करी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली जैसे लोग क्या इतने बच्चे हैं कि मंत्रिमंडल की बैठकों में राष्ट्रपति शासन लगाने के फ़ैसलों पर भी यूं ही ठप्पा लगा देते हैं? फिर लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी आख़िर कैसे अधिकृत मार्गदर्शक हैं कि उनके होते हुए नीतिगत निर्णय इतने फ़िसलन भरे रास्तों की तरफ़ लुढ़कते जा रहे हैं?
राजनीति मनुष्य तो मनुष्य, देवताओं तक को असुर बनाने का कारखाना है। सो, कल के प्रचारकों की वैचारिक पवित्रता रोज़मर्रा की राजनीति में आ कर मैली-कुचैली हो जाए, यह तो मैं फिर भी समझ सकता हूं। मगर मोहन भागवत जैसे ‘संस्कृति-कर्मियों’की ऐसी बेचारगी मुझसे देखी नहीं जाती। लोग तो पता नहीं क्या-क्या कहते हैं, लेकिन मेरा मन अब भी यह मानने को नहीं करता कि भाजपा और उसकी सरकार में मोदी और शाह के अलावा किसी की कुछ चलती ही नहीं है। मैं तो सोचता था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे ‘सांस्कृतिक संगठन’के इशारे के बिना तो आज की सरकार के बगीचे में पत्ता भी नहीं हिलता होगा। लेकिन अब मेरे पास यह मानने के अलावा कोई चारा नहीं है कि भारत को कांग्रेस-मुक्त करने की हुलक के चलते लोकतंत्र की तमाम लक्ष्मण रेखाओं को पड़ रही मोदी-शाह की लातों के पीछे मूंछों-ही-मूंछों में मंद-मंद मुस्कराते रहने वाले भागवत भी हैं। आडवाणी, मुरली मनोहर, राजनाथ, सुषमा, गड़करी, जेटली–सब एक ही डाल पर बैठे हैं। ऐसा न होता तो जब उत्तराखंड और अरुणाचल हो रहा था तो इनमें से कोई तो बोलता! और, अगर कोई भी बोला होता तो भाजपा के माथे पर इसी साल दो-दो बार कलंक न लग गया होता।
बीसवीं सदी की उदारता और समावेशिता का विचार ही हमारे लोकतंत्र का ढांचा है। इतनी राजनीतिक-सामाजिक अनुदारता और ग़िरोहबंदी से देश नहीं चला करते। दुनिया भर में टप्पेबाजी करते तो कोई भी घूम सकता है, लेकिन जिन्हें वैश्विक परिदृश्य की रत्ती भर भी समझ है, वे जानते हैं कि उन लाठियों को आख़िरकार टूटना ही पड़ता है, जिन्हें लोकतंत्र की कमर तोडने के लिए तेल पिलाया गया हो। मैं मानता हूं कि जिनमें अपने भीतर झांकने की नैतिक ताक़त न हो, वे और कुछ भी हो सकते हैं, लोकतंत्र के रखवाले नहीं हो सकते।
अब से पूरे एक महीने बाद नरेंद्र भाई मोदी लालक़िले से फिर अपने मन की बात कहेंगे। उन्होंने जब प्रधानमंत्री बनने के बाद लालक़िले से अपना पहला भाषण दिया तो, बावजूद इसके कि मोदी अपने साथ एक अतीत ले कर दिल्ली आए थे, मुझे लगा कि चंबल के बीहड़ शायद पश्चात्ताप के ताप से पिघल रहे हैं। तब नरेंद्रभाई ने कहा था कि मैं सभी राजनीतिक दलों को साथ ले कर चलूंगा। सिर्फ़ इसलिए फै़सले नहीं लूंगा कि बहुमत हमारा है। सहमति के मज़बूत धरातल पर देश को आगे ले जाने का उन्होंने वादा किया। कंहा, मैं राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति को मानता हूं। सवाल उठाया कि यह सांप्रदायिकता का पापाचार कब तक चलेगा? अपने भीतर की बिलख दिखाई कि बहुत लड़ लिए, बहुत लोगों को मार दिया, काट दिया। कुछ नहीं मिला। सिर्फ़ भारतमाता के अंगों पर दाग़ लगाने के अलावा कुछ नहीं हुआ। सलाह दी कि दस साल तक इन सारे तनावों से मुक्त हो जाएं। फिर देखें, हम कहां जाते हैं। बोले कि अब तक किए पापों को रास्ते में छोड़ें। अब सद्भावना का रास्ता पकड़ें। बताया कि लोकतंत्र सिर्फ़ सरकार चुनने का माध्यम नहीं है। यह जन-भागीदारी का मामला है।
पूरी चौथाई सदी बाद स्पष्ट बहुमत से चुन कर आए प्रधानमंत्री द्वारा आज़ादी की वर्षगांठ के पवित्र मौक़़े पर लालक़ि़ले की प्राचीर से देश से की जा रही बातों पर अपना संदेह ज़ाहिर करना कितना जोखि़म भरा था, मैं जानता था। अभी तो मोदी ने अपनी सिंहासन-बत्तीसी का पहला पन्ना लिखना शुरू ही किया था। लेकिन तब भी टेलीविजन की बहसों में मैं खुद को रोक नहीं पाया और मोदी के मन की बातों से अपने मन की बातों की उलटबांसी खुल कर ज़ाहिर की। दो बरस बाद आज मेरा मन इससे क़तई ख़ुश नहीं है कि मैं सही साबित हुआ और मोदी अपनी कही बातों पर खरे नहीं उतरे। मोदी अपनी बातों के धनी निकलते तो सबसे पहले मैं ख़ुश होता और उनकी जगह कई औरों की छाती भी छप्पन इंच की हो गई होती।
ठीक एक महीने बाद हम नरेंद्र भाई को तीसरी बार लालक़िले पर सवार देखेंगे। हालांकि अब मुझे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है कि वे इस बार क्या कहते हैं, क्या नहीं। लेकिन फिर भी क्या हम उम्मीद करें कि वे लोकतंत्र का चीरहरण करने वाले लठैतों को पड़ी लताड़ पर कुछ बोलेंगे? क्या वे बताएंगे कि पुरानी व्यवस्थाओं का कायाकल्प करने के नाम पर उन्होंने दो बरस में संवैधानिक संस्थाओं की नींव डिगाने के अलावा क्या किया है? लोक-चेतना, लोक-जागरण और लोक-संगठन लोकतंत्र की असली आत्मा हैं। साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिए इस आत्मा का नाश करने की सोच रखने वालों के पास अब भी समय है कि वे अपने को बदलें। ग़लत जब होता दिखे, आवाज़ वहीं और उसी वक़्त उठाना ज़रूरी है। बाद में मोमबत्तियां जलाने से अंधेरा नहीं भागा करता। मुद्दा अब यह नहीं है कि अरुणाचल में कांग्रेस के नाबम तुकी राज करते हैं या भाजपा के कालिखो पुल। मुद्दा तो यह है कि उत्तराखंड के बाद अरुणाचल की दुर्योधनी हरकतों पर भी अगर देश का प्रधानमंत्री ख़ामोश रहता है तो आगे चल कर भाजपा का तो जो होगा, सो, होगा; देश का मन तो आज ही टूट जाएगा। टूटे दिलों के फ़तवे ने 2014 में नरेंद्र भाई को दिल्ली पहुंचाया था। इसलिए उनसे बेहतर यह कौन जानता है कि मन जब टूटते हैं तो उनकी आवाज़ उस वक़्त भले ही सुनाई न दे, चुनावों में उनकी अनुगूंज बड़े-बड़े क़िलों को ढहा देती है। 2019 अब इतना भी दूर नहीं है।
लेखक ग्लोबल इंडियन इन्वेस्टिगेटर के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
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