राजनीतिक छिछोरापन अपनी नई नीचाइयां छू रहा है। अगर अरविंद केजरीवाल ने अपने नौ मिनट के वीडियो-संदेश में यह न कहा होता कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें मरवा भी सकते हैं तो कोई भी मोदी के बारे में कही गई उनकी बाकी बातों की शायद ताईद ही करता। लेकिन जब भारत की राजधानी का मुख्यमंत्री भारत के प्रधानमंत्री के बारे में यह कहे कि वह उनकी जान ले सकता है तो ऐसे मुख्यमंत्री की बुद्धि पर तरस खाने के अलावा आप क्या कर सकते हैं?
इसमें कौन-से दो मत हैं कि मोदी-सरकार की एजेंसियां केजरीवाल के साथियों पर कार्रवाई के मामले में जितनी मुस्तैदी दिखा रही हैं, मोदी की भारतीय जनता पार्टी और उसके मातृ-संगठन से जुड़े लोगों को लेकर वैसी तत्परता दिखाने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है। ज़रूरी नहीं कि केजरीवाल से जुड़े सभी लोग पाक-दामन ही हों, लेकिन ऐसा भी कहां है कि मोदी के सिपहसालार हर की पौड़ी पर नहाने के अलावा कुछ कर ही नहीं रहे हैं? मोदी-राज में क़ानून के लंबे हाथ अगर केजरीवाल के आसपास की गर्दनों को नाप रहे हैं तो उन्हें मोदी की अगल-बगल के गिरेबान झांकने से कौन रोक रहा है?
राजा निष्पक्ष नहीं है, यह तो नंगी आंखों से दिखाई दे रहा है, लेकिन क्या वह इतनी नंगई पर भी उतर सकता है कि अपने देश की राजधानी के मुख्यमंत्री को मरवाने की सोचने लगे? केजरीवाल के मुताबिक़ अगर मोदी इतने ही बौखला गए हैं तो मेरे मुताबिक़ केजरीवाल का सनकीपन भी कोई कम उबाल पर नहीं है। वे जिस तरह के दमन का डर दिखा रहे हैं, जिस तरह अपने सहयोगियों को मरजीवड़ा बनने के लिए भड़का रहे हैं, उससे लोकतंत्र की उनकी अधकचरी समझ ही ज़्यादा ज़ाहिर होती है। क्या भारत की जनतांत्रिक धरती इतनी निर्लज्ज हैं कि अगर कोई प्रधानमंत्री किसी मुख्यमंत्री को मरवाने की सोच भी ले तो उसकी इस नीयत भर से वह डोलने नहीं लगेगी?
केजरीवाल की कही इस बात में दम है कि मोदी-सरकार आमतौर पर हर मोर्चे पर नाकाम होती जा रही है। लेकिन इसका यह मतलब कहां से हो गया कि केजरीवाल की दिल्ली में स्वर्ग उतर आया है? यह सही है कि मोदी और उनकी भाजपा की लोकप्रियता दिनों-दिन गिर रही है, लेकिन इससे यह कहां तय हो गया कि पंजाब, गोवा, गुजरात और अंततः पूरा देश केजरीवाल के गले में जयमाला डालने को लपक रहा है?
यह सही है कि महंगाई ने ग़रीबों के आंसू निकाल दिए हैं, लेकिन केजरीवाल की दिल्ली में ही भाजी कहां टके सेर बिक रही है? सही है कि अर्थव्यवस्था का यह हाल है कि छोटा हो, मंझला हो या बड़ा-हर व्यापारी परेशान है, किसान बेहाल हैं, दलित एंड़ियां रगड़ रहे हैं और नौजवानों की सपनीली आंखें पथरा रही हैं; मगर ये हालात किसी एकजुट और ठोस विरोध से बदले जा सकते हैं या अपने हमजोलियों को आगे की लड़ाई लड़ने के लिए घर वालों से पूछ कर आने की बचकानी सलाह देने से?
समावेशी राजनीति के लिए मोदी जितना बड़ा संकट हैं, वैकल्पिक राजनीति के लिए उतना ही बड़ा संकट केजरीवाल हैं। भारतीय सियासत को तो इन दोनों से ही अपनी आबरू बचानी होगी। राजनीतिक शिष्टाचार के चीरहरण को कुलबुलाती इनकी उंगलियां उस चोहद्दी को पार कर रही हैं, जिसने लोकतंत्र की परंपराओं को महफ़ूज रखा है। न तो प्रधानमंत्री के गरिमामय पद पर बैठे किसी व्यक्ति ने आज तक ऐसी बातें कहीं-कीं, जो आज के प्रधानमंत्री कह-कर रहे हैं और न ही मुख्यमंत्री के पद पर बैठे किसी व्यक्ति ने आज तक इस तरह आंय-बांय-शांय बनैटी घुमाई, जैसी केजरीवाल घुमा रहे हैं। सिर तो अपना वे फोड़ रहे हैं, जिनकी क़िस्मत में यह सब देखना लिखा था।
एक तरफ़ मोदी हैं, जिन्हें अपने अफ़सरों के ज़रिए राज चलाने में इसलिए ज़्यादा सहूलियत लगती है कि अफ़सरों के जु़बान ‘जो आज्ञा’ कहने के अलावा कुछ जानती नहीं। उन्हें अनुभवी-से-अनुभवी भाजपा-नेता के पंख कतरने में जो मज़ा पिछले ढाई साल में आया है, कभी नहीं आया। उनकी धुन पर क़दमताल करने वाले उन्हें पसंद हैं। वे मंत्रियों को स्वायत्तता देने के एकदम खि़लाफ़ हैं और उनके एक-एक काम पर निग़ाह रखते हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के अलावा कोई उनका विश्वस्त नहीं है। लोगों को मोदी में व्यक्तिपरक राजनीतिक के सारे लक्षण दिखाई देते हैं।
दूसरी तरफ़ केजरीवाल हैं। वे अपने अंदाज़ में अफ़सरों को धमकाए बिना बाज़ नहीं आते हैं और कहते हैं कि अभी पंद्रह साल तो हम रहेंगे ही, इसलिए जो अफ़सर 45 की उम्र के आसपास हैं, उनके लिए यही अच्छा है कि हमारी बात सुनने लगें। अण्णा हजारे की साख चूस लेने के बाद प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव जैसों को भी किनारे लगाने में उन्हें जो आनंद आया, पहले कभी नहीं आया था। अपने इशारों पर नाचने वाले उन्हें भी पसंद हैं। अपने उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के अलावा उनका भी कोई विश्वस्त नहीं है। लोगों को केजरीवाल के चेहरे पर भी हिटलर की मक्खी-मूंछ दिखाई देती है।
केजरीवाल मोदी को क्या-क्या नहीं कह चुके? मनोरोगी उन्हें वे बता चुके। कायर उन्हें वे कह चुके। अब वे मोदी को बौखलाया हुआ बता रहे हैं। केजरीवाल के ये आकलन सही हैं या ग़लत, केजरीवाल जानें। लेकिन मैं इतना जानता हूं कि केजरीवाल की मनोदशा में भी कोई शाश्वत खोट है। उत्पाती वे कितने ही हों, बहादुर वे भी नहीं हैं। बहादुर इस तरह खुद को मरवाने के अंदेशों पर हाय-हाय करते नहीं फिरते। अगर मोदी उन्हें बौखलाए लग रहे हैं तो वे खुद कौन-से कम बौखलाए हुए हैं? मुसीबत तो देश की है, जो दो बौखलाहटों की लपटों के बीच से गुजर रहा है। इस झुलस के दाग़ मिटाने का मरहम हम कहां से लाएं?
बहुलता हमारा सांस्कृतिक सत्य है, लेकिन मोदी-भक्त इसे मानने को तैयार नहीं हैं। राजा को, और निर्वाचित राजा को तो ख़ासतौर पर, सबसे समान व्यवहार करना चाहिए; लेकिन मोदी की इस सिद्धांत में कोई आस्था नहीं है। संघीय ढांचे में अपने हक़ की लड़ाई लड़ते समय किसी मुख्यमंत्री को अराजक होने की इजाज़त नहीं है। लेकिन केजरीवाल इसे मानने को तैयार नहीं हैं। उन्हें भी इस सिद्धांत में कोई आस्था नहीं है कि एक बवाल-बाज़ आंदोलनकारी और एक ज़िम्मेदार प्रशासक की बातों और व्यवहार में फ़र्क़ होना चाहिए। सो, दो पाटों के बीच पिसना आज की नियति हो गई है। लेकिन लोकतंत्र का असली भविष्य तो इस नियति से मुक्ति में ही निहित है। इसलिए उस दौर में जब मोदी केजरीवाल से और केजरीवाल मोदी से मुक्ति के लिए संयम की सारी सीमाओं को अपने ठेंगे पर रख रहे हैं, असली मुक्तिवाहिनी तो इन दोनों प्रवृत्तियों से मुक्ति के लिए बननी चाहिए।
जिस सियासत में रफ़्तार है, राहत नहीं; शोर है, सुकून नहीं; बयानों की भड़कन है, दिलों की धड़कन नहीं; ऐसी सियासत को हम कब तक सीने से चिपकाए रखेंगे? लोकतंत्र के कुंए में हमारे बड़े-बूढ़े जो नेकियां फेंक गए, उनकी वजह से अब तक भी इस कुंए का पानी मीठा है। खारेपन के कारोबारियों को इससे कोई लेना-देना हो, न हो; बाकी सबको तो इसकी चिंता होनी ही चाहिए। क्योंकि दुनिया के सबसे विराट जनतंत्र की सार्थकता सिर्फ़ तब तक है, जब तक उसमें राजा का नहीं, प्रजा का अभिषेक होता रहेगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
You must be logged in to post a comment Login