पांच बरस पहले रामलीला मैदान में अण्णा हजारे के सिर पर सवार अरविंद केजरीवाल को तिरंगा लहराते देख जिन लोगों के मन में देशप्रेम की भावनाएं हिलोरें ले रही थीं, अब वे अपना माथा पीट रहे होंगे। जिन्हें केजरीवाल में युगांतरकारी प्रवर्तक के दर्शन हो रहे थे, अब वे इस ओखली में सिर देने पर पछता रहे होंगे। जिन्हें लगा था कि भारतवर्ष वैकल्पिक राजनीति के सतयुग में प्रवेश कर रहा है, अब वे केजरीवाल की सियासी बारात में शामिल घोर कलियुगी चेहरों को देख कर खुद के चेहरे छिपा रहे होंगे।
रोज़ सुबह उठ कर सबसे पहले अपनी पत्नी के चरण स्पर्श करने के उसके संस्कारों से मुख्यमंत्री केजरीवाल भीतर तक इतने भीग गए थे कि उसे दिल्ली की अपनी सरकार में महिला विकास और बाल कल्याण मंत्री बना दिया। पट्ठे की झक्कू-वृत्ति की मिसाल यह कि तीन बार जीते विधायक को अपनी झोली में बेतहाशा बरसते वोटों से पछाड़ कर पिछले साल विधानसभा में पहुंच कर सबको भौचक कर दिया था। वकील है और ग़रीबों के मुक़दमे मुफ़्त लड़ने का दावा करता था। मंत्री बनने के बाद कभी किसी स्कूल की प्रिंसिपल से लड़ता था तो कभी बालिका-आश्रम में रहने वाली लडकियों के फोन ज़ब्त करने के आदेश दिया करता था। एक बार राजधानी के भिखारियों के पीछे पड़ गया और हंगामा मचा दिया। अब एक ऐसी सीडी में नायक की भूमिका करता दिख गया कि कौन बचा पाता, सो, जाता रहा।
दिल्ली की सरकार में सात मंत्री होते हैं। केजरीवाल को उनमें से तीन को समय-समय पर निकालना पड़ा है। किसी भी सरकार के मुखिया के लिए यह कैसा अभिनंदन पत्र है कि उसे अपने क़रीब आधे मंत्रियों को अजब-गजब वज़हों से निकालना पड़ा हो! केजरीवाल का एक मंत्री इसलिए गया कि उसकी शिक्षा की डिग्री नक़ली होने की बात सामने आई और जब पुलिस उसे लेकर जाच करने निकली तो वह उन कमरों तक को नहीं पहचान पाया, जिनमें बैठ कर उसने कथित पढ़ाई की थी। एक और मंत्री लाखों की रिश्वत मांगने के चलते निकाला गया।
बड़े तो बड़े, छोटे भी सुभानअल्लाह! केजरीवाल के क़रीब एक दर्जन विधायकों के दामन भी बदरंग हैं। एक अपनी ही पार्टी की महिला कार्यकर्ता की आत्महत्या के मामले में गिरफ़्तार हो चुके हैं। दूसरे धर्म-ग्रंथ की अवमानना करने की वज़ह से ज़मानत पर हैं। तीसरे एक महिला को जान से मारने की धमकी देने पर गिरफ़्तार हुए थे। चौथे अपनी पत्नी से मारपीट करने के कारण ज़मानत पर चल रहे हैं। पांचवे को भी अपनी पत्नी पर ज़्यादती करने के कारण महिला आयोग ने पुलिस के हवाले कर दिया था। छटे महिला से गंभीर छेड़खानी के लिए गिरफ़्तार हो चुके हैं। सातवें को एक बुजु़र्ग महिला को तमाचा मारने पर ज़मानत करानी पड़ी। आठवें मारपीट और हमले को लेकर गिरफ़्तार किए गए। नौवें को दंगेबाज़ी के लिए पुलिस ले गई थी। दसवें को एक कर्मचारी से मारपीट में ज़मानत लेनी पड़ी।
क्या केजरीवाल अपनी वैकल्पिक राजनीति का यही सपना पंजाब से पुदुचेरी और गुजरात से गोआ तक साकार करना चाहते हैं? क्या भारतीय राजनीति के केजरी-करण की यही माला फेरते-फेरते वे 2019 में रायसीना पर्वत फ़तह करने की गुदगुदी से सराबोर हैं? जब बिना किसी तपस्या के अपनी कूवत से बहुत बड़ी उपलब्धियां हासिल हो जाती हैं तो दिमाग़ बौराना अस्वाभाविक नहीं है। लोकतांत्रिक संयोग कई बार कइयों को यह अवसर प्रदान करता रहा है। लेकिन जो लोग अपनी छिछली कारगुज़ारियों को तपस्या समझ लेते हैं, वे लंबा नहीं चलते। तपस्वी तो दूर, साधक होने में भी उम्र गुज़र जाती है। केजरीवाल और उनकी टोली जिन झंडा-लहराऊ गतिविधियों को स्वाधीनता संग्राम में हिस्सेदारी जैसा मान कर इतराने लगी थी, उसका मुलम्मा अब उतर गया है। रंगों की परत घुलने के बाद सामने आ रहे चेहरे जुगुप्सा जगा रहे हैं।
केजरीवाल और उनके मुख्य सहयोगी अपने चेहरों पर ऐसा भाव लिए घूमते हैं, गोया, पता नहीं कितनी लंबी संघर्ष-यात्रा कर यहां तक पहुंचे हैं! गोया, पता नहीं कितनी क़ुर्बानियों और त्याग के बाद उन्हें यह मुक़ाम हासिल हुआ है! केजरीवाल टोली के हर सदस्य को लगता है कि उसकी शक़्ल के पीछे एक आभा-चक्र घूम रहा है, जो उसने वर्षो की तपस्या से प्राप्त किया है। उन्हें ख़ामख़्याली है कि ज्ञान की गंगा जब अपनी गंगोत्री से निकली तो सीधे उन्हीं के द्वार पर आकर रुकी है और बाकी किसी को तो उसके आचमन का मौक़ा ही नहीं मिला। इसलिए दिल्ली तो ठीक, भारत भी ठीक, उनके चुटकी में तो पूरे संसार की समस्याओं का समाधान मौजूद है।
इसलिए देश की राजधानी में हम शासन-प्रशासन और राज-काज की बाल-सभा का मंचन देख रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जितना बड़ा तपस्वी बैठा है, वैसे ही आजीवन-तप के बूते कोई और उप-राज्यपाल की कुर्सी तक पहुंचा है। ऐसे में इंद्रप्रस्थ के भाग्य में इसके अलावा और क्या लिखा होगा कि यहां की प्रजा इन दो महारथियों के तरकशों से निकले तीरों की चुभन झेलती रहे। सियासत के कुर्ते-पाजामों को हम कितना ही कोसें, लेकिन राजनीतिक प्रक्रिया से निकल कर आए नेतृत्व और गै़र-सियासी गलियारों में टहलते-टहलते नीति-निर्धारक चबूतरों पर पहुंच गए चेहरों का फ़र्क देखना हो तो कुछ दिन दिल्ली में गुजारिए। गए-बीते से गया-बीता खांटी राजनीतिक भी ऐसा बचकाना नहीं होता, जैसी केजरी-मंडली है।
काग़जी नियमों के स्प्रिंग-बोर्ड पर किसी प्रशासक को ऐसा उछलता भी कहीं किसी ने नहीं देखा, जैसा दिल्ली अपने उप-राज्यपाल को देख रही है।
पदों की गरिमा के हनन का यह दृश्य अगर आपको विचलित नहीं करता तो आपके धैर्यवान और स्थितप्रज्ञ होने के गुणों को कौन नमन् नहीं करेगा? अगर देश की राजधानी की सामूहिक अंर्तआत्मा इतने पर भी करवट नहीं बदलेगी तो क्या क़यामत तक इंतज़ार करेगी? राजनीति को खिलौना समझने की आदत अब इतनी पकती जा रही है कि, आपको लगता हो, न लगता हो; मुझे तो लगता है कि कहीं जाने-अनजाने हमारे बौने रहनुमा और उनसे भी दूनी बौनी उनकी चौकड़ी जनतंत्र के जनाज़ा निकालने की तैयारिया तो पूरी नहीं कर चुकी? जब आज के सच पर तो दूर-दूर तक उनकी निग़ाह ही नहीं है तो आख़िरी कील ठुकने में वक़्त ही कितना बचा होगा?
आज का सच यह है कि खरबपतियों की तादाद के मामले में दुनिया के चार-छह देशों की कतार में पहुंच जाने पर हम अपनी पीठ थपथपाते हैं और यह आसानी से भूल जाते हैं कि ब्रिटेन की आबादी से तीन गुने ज़्यादा लोग भारत में आज भी झुग्गियों में रहते हैं। महंगाई और महिलाओं पर अत्याचार अब हमारी मुट्ठियों को नहीं तानते। नौकरियां खोजने में खप रही एक पूरी युवा पीढ़ी हमारी नींद नहीं उड़ाती। आज की राजनीति खर्रांटे भर रही है। इसलिए शासन-व्यवस्था राजनीति नहीं, बाज़ार चला रहा है। बदलाव तब आते हैं, जब स्वप्न देखने के साथ हम कर्म भी करें। जिन स्वप्न-दृष्टाओं के पैर ज़मीन पर नहीं टिके होते, वे हवा में से प्रकट होते हैं और हवा में ही ग़ायब हो जाते हैं। उनके सपने कभी पूरे नहीं होते।
हमने बचपन में बौनों के देश में गुलीवर के आने की कहानियां पढ़ी थीं। लेकिन अब हम गुलीवरों के देश में बौनों के आगमन पर झूमने लगे हैं। नेतृत्व के बौनेपन की यही रफ़्तार अगर क़ायम रही तो बन लिया भारत विश्व-गुरू! मलबा बनते लोकतंत्र से निकल रही इन चीखों को जो आज नहीं सुनेंगे, समय लिखेगा उनका भी अपराध!
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