राहुल के पसीने की पाई-पाई वसूलने का वक़्त – Global India Investigator

राहुल के पसीने की पाई-पाई वसूलने का वक़्त

Rahul Gandhi Congress

अब से ठीक 26 साल पहले 1990 की सर्दियों की शुरुआत सियासी आग की लपटों से हुई थी। वह सितंबर के आख़िरी सप्ताह का मंगलवार था और लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अपनी रथ यात्रा शुरू की। ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा बुलंद करते हुए जैसे-जैसे उनका रथ अयोध्या की तरफ़ बढ़ता गया, देश में शोले सुलगते गए। बावजूद इसके कि दस महीने पहले नवंबर 1989 के तीसरे हफ़्ते में हुए आम चुनावों में कांग्रेस ने साढ़े उनतालीस प्रतिशत मतों और 197 सीटों के साथ सबसे बड़े राजनीतिक दल का दर्ज़ा हासिल किया था, राजीव गांधी ने 143 सीटों वाले जनता दल के लिए सिंहासन खाली कर दिया था और सिर ऊंचा कर विपक्ष में बैठे हुए थे। उनकी आस्तीन से लिपट कर राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री का मुकुट पहने रायसीना हिल्स पर बैठे थे। उनकी नटबाज़ी का क़माल था कि 2 से 85 सीटों पर पहुंची भारतीय जनता पार्टी भी बाहर से उनकी सरकार का समर्थन कर रही थी, 33 सीटों वाली मार्क्सवादी पार्टी भी उन्हें टेका दे रही थी और 12 सीटों वाली कम्युनिस्ट पार्टी भी बाहर से उनका समर्थन कर गदगद थी। ऐसे में केंद्र की सरकार में कहां यह कूवत थी कि आडवाणी का रथ रोक दे।

तब झुलसते माहौल में 2 अक्टूबर को राजीव गांधी ने देश भर की सदभावना यात्रा शुरू की। एक तरफ़ आडवाणी की मशालें थीं। दूसरी तरफ़ राजीव गांधी की फुहारें थीं। आडवाणी की रथ यात्रा को राजमार्गों से गुजारने का संचालन-सूत्र संभालने वाले नरेंद्र भाई मोदी आज हमारे प्रधानमंत्री हैं। राजीव गांधी के साथ तब पगडंडियों पर घूमने वाले लोग आज वानप्रस्थ चरण में हैं। उस ज़माने में निजी टेलीविजन चैनल नहीं थे और दूरदर्शन की हर ख़बर पर सरकार का पहरा था। ज़ाहिर है कि आडवाणी की रथ यात्रा छाई रहती थी और राजीव की सदभावना यात्रा परदे से नदारद थी। विट्ठल गाडगिल कांग्रेस के प्रवक्ता थे और मुझे याद है कि 1990 के अक्टूबर का वह तीसरा सोमवार था। आमतौर पर ठंडेपन से अपनी बात कहने वाले गाडगिल उस दिन उबल पड़े थे और कांग्रेस द्वारा सरकार को भेजी गई एक चिट्ठी पत्रकारों को जारी करते हुए उन्होंने ऐलान किया कि अब बहुत हो चुका। सरकार अब कांग्रेस से संसद में किसी भी सकारात्मक सहयोग की उम्मीद न रखे।

आडवाणी की रथ यात्रा के पहियों से लिपटी मासूमों की चीखें आज भी उन्हें सन्नाटे में सुनाई देती हैं, जिन्होंने वह दौर अपनी आंखों से देखा है। उन काले बादलों से टकराने के राजीव गांधी के जज़्बे का ही नतीजा था कि गाडगिल के ज़रिए सामने आए कांग्रेस के तेवरों में सरकार को अपने भविष्य के ऐसे तारे नज़र आए कि सात दिन बाद 23 अक्टूबर को बिहार के समस्तीपुर में आडवाणी को गिरफ़्तार करना पड़ गया। यह वही सदभावना यात्रा थी, जिसमें राजीव गांधी अयोध्या की बगल से गुज़रे तो लेकिन हनुमानगढ़ी नहीं जा पाए थे।

राहुल गांधी तब 20 साल के थे और दिल्ली के सेंट स्टीफन्स कॉलेज में एक साल पूरा कर आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका के मेशाशूट्स पहुंचे ही थे। आज वे 46 के हैं, उन्हें राजनीति में आए 12 बरस हो गए हैं, ठीक 9 बरस पहले वे कांग्रेस के महासचिव बने थे, साढ़े तीन साल से उपाध्यक्ष हैं और उत्तर प्रदेश की अपनी किसान यात्रा में हनुमानगढ़ी जाकर उन्होंने अपने पिता के उसी संकल्प को दोहराने का संकेत दिया है, जिसके चलते तमाम बजरंगदलियों के बावजूद भारत आज भी मिली-जुली तहज़ीब का सबसे अहम केंद्र बना हुआ है। इस शुक्रवार को हनुमानगढ़ी की सीढ़ियां उतरने के बाद राहुल किछौछा शरीफ़ दरगाह भी गए। भारत को विश्व गुरू बनाने की कोशिशों का सेहरा अपने सिर पर बंधवाने की होड़ में लगे अर्द्धशिक्षित योगियों और साघ्वियों में से ज़्यादातर को यह मालूम भी नहीं होगा कि सवा सात सौ बरस पहले हुए जिन सैयद अशरफ़ जहांगीर सेमनानी की यह दरगाह है, वे थे कौन? यह उम्मीद करना कि पौने पांच सौ बरस पहले लिखे गए पद्मावत को इनमें से किसी ने पढ़ा होगा, ज़्यादती है।

फटाफट ख़बरों के इस दौर का दुर्भाग्य है कि हमारे ज़्यादातर अधकचरे समाचार-सूत्रधारों को अपना परदा और पन्ना रंगने की होड़ में राहुल के हनुमानगढ़ी जाने में नरम-हिंदुत्व की बूंदाबांदी दिखाई देने लगती है और अगर वे किसी सू़फ़ी संत की दरग़ाह पर चले जाते हैं तो तुष्टिकरण की मूसलाधार से अख़बार गीले हो जाते हैं। कांग्रेस ने राहुल की यात्रा को किसान-यात्रा कहा, लेकिन उमड़ती भीड़ देखी तो गाल-बजाऊ माडिया को लगा कि इसे ‘किसान महायात्रा’ कहा जाए। बेचारे यह भी नहीं जानते कि ‘महायात्रा’ किसे कहते हैं? ऐसी ही विभूतियों के चलते आजकल हम हर रोज़ मीडिया की ‘महायात्रा’ निकलती देखते हैं।

राहुल की किसान यात्रा के पहले सप्ताह ने जैसी ऊष्मा बिखेरी है, उससे तो लगता है कि सितंबर का महीना बीतते-बीतते उत्तर प्रदेश का कैनवस एक अलग ही रंग में रंग जाएगा। राहुल गांधी की मेहनत का यह रंग इस बार हाथ पर ज़रा ज़्यादा देर क़ायम रखने में अगर उनकी टोली क़ामयाब रही तो तसवीर बदलने लगेगी। कोई कुछ भी कहे, लेकिन हिचकोले खाती कांग्रेस की गाड़ी को अपनी सदाशयपूर्ण और ईमानदार कोशिशों से पटरी पर लाने में राहुल ने कब कोई कोताही की है?

राहुल ने 2009 के लोकसभा चुनाव में देश भर में 125 जनसभाएं की थीं। 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में राहुल दो महीने वहां रहे और 200 से ज़्यादा रैलियां कीं। 2009 में जिस शाम दलित-देवी मायावती चमक-दमक के बीच अपना जन्म दिन मना रही थीं, राहुल श्रावस्ती के रामपुर-देवगन गांव में दलित छेदी पासी की झोंपड़ी में टूटी चारपाई पर सो रहे थे। उड़ीसा की नियमगिरि पहाड़ियों से ले कर बंगाल के सिंगूर तक और भट्टा-पारसौल से लेकर गुजरात के उना तक वंचित तबकों का ऐसा कौन-सा दर्द है, जो राहुल को विचलित न करता हो? लेकिन उनकी मेहनत का पसीना बेकार कहां चला जाता है?

मैं दुआ करता हूं कि उत्तर प्रदेश में किसानों के कर्ज़ माफ़ कराने, उन्हें बिजली आधे दाम पर दिलाने और उनकी उपज की न्यूनतम कीमत बढ़ाने के लिए राहुल आज जो हाड़तोड़ परिश्रम कर रहे हैं, वह कांग्रेस की हड्डियां मज़बूत करे। पसीने की बूंदों से अंकुर तब फूटते हैं, जब प्रतिबद्ध ज़मीनी टोलियां बुआई-सिंचाई के काम में मन से लगी होती हैं। भाड़े के टट्टुओं के भरोसे इतिहास में कभी कोई युद्ध नहीं जीता गया। पिछले बारह बरस में राहुल के प्रयासों को पलीता उन्होंने लगाया है, कांग्रेस जिनके लिए अपना समय बिताने की सराय बन गई है। लोग हैं जो हल राहुल से खिंचवाते हैं और जब धरती की गुड़ाई हो जाती है तो अपने-अपने घर जा कर सो जाते हैं। राहुल के बोए बीज अब तक इसलिए ठीक से नहीं फले कि बाद में उन्हें पानी देने वाले खुद की सुराहियों में मस्त रहे। इस बार राहुल के पसीने की पाई-पाई तभी वसूल होगी, जब गुड़ाई से ले कर बुआई, सिंचाई और कटाई तक के सारे काम अनवरत मुस्तैदी से हों। मैं जानता हूं कि अच्छे मौसम के मित्रों से छुटकारे के लिए निरंतर मुठभेड़ किस तरह राजीव गांधी की नियति थी और मैं मानता हूं कि यही राहुल गांधी की भी नियति है। उनकी क़ामयाबी की चाबी इसी खूंटी पर लटकी है।

You must be logged in to post a comment Login