अगले साल जुलाई-अगस्त में देश के नए राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के चेहरे तय करने की चौपड़ अब बिछने लगी है। प्रणव मुखर्जी का कार्यकाल 24 जुलाई को और मुहम्मद हामिद अंसारी का 10 अगस्त को ख़त्म हो जाएगा। अप्रैल के महीने तक उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर की विधानसभाओं के चुनाव नतीजे भी आ जाएंगे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात सुनने के लिए कइयों के कान खड़ें हो चुके होंगे।
शिवसेना ने प्रणव मुखर्जी को बतौर राष्ट्रपति दूसरा कार्यकाल देने की सुरसुरी छोड़ कर मोदी की राह में कंकर बिखेरने की शुरुआत की है या मुखर्जी के-मालूम नहीं। लेकिन लोकसभा में 18, राज्यसभा में 3 और महाराष्ट्र विधानसभा में 62 सदस्यों के मालिक उद्धव ठाकरे अपनी इस सियासी-गुगली की उत्पाती अहमियत जानते हैं। उन्हें मालूम है कि मुखर्जी को दोबारा गद्दीनशीन करने की उनकी इस दुधारी कोशिश को भारतीय जनता पार्टी के कई सहयोगी दलों का समर्थन मिल सकता है।
तेलुगु देशम के एन. चंद्राबाबू नायडू, शिरोमणि अकाली दल के सुखबीर बादल और लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान संघ समर्थित किसी भाजपाई चेहरे को राष्ट्रपति भवन में देखने के बजाय मुखर्जी को दोबारा देखना ज़्यादा पसंद कर सकते हैं। तीनों के पास लोकसभा में 26 और राज्यसभा में 9 सदस्य हैं। विधानसभाओं में 180 विधायक भी उनकी झोली में हैं। भाजपा की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में ढाई दर्जन ऐसे और राजनीतिक दल हैं, जो मोदी के मन की बात सुनने के बजाय उन्हें अपने मन की बात सुनाने के लिए बाकियों की ताल से ताल मिला सकते हैं। इनके पास लोकसभा में 10, राज्यसभा में 2 और विधानसभाओं में अभी 179 सदस्य हैं। कुल मिला कर 54 लोकसभा सदस्यों, 14 राज्यसभा सदस्यों और 421 विधानसभा सदस्यों वाले दबाव-समूह की अनदेखी करना नरेंद्र भाई के लिए क्या आसान होगा? सो, बावजूद इसके कि भाजपा का पितृ-संगठन अपने प्रधानमंत्री से कुछ और आस लगाएगा, मुखर्जी की दोबारा ताजपोशी असंभव भी नहीं है।
यूं भी भाजपा-संघ की माला में ऐसे नगीने हैं ही कितने, जिन्हें देश के सर्वोच्च सिंहासन पर जड़ा जा सके! चलने को तो राष्ट्रपति पद के लिए लोकसभा-अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का नाम चल रहा है। कहते हैं कि वे संघ की पसंद तो हैं, लेकिन मोदी के कहने में अब उतनी नहीं हैं कि मुगल-बाग में टहल सकें। नरेंद्र भाई मन-ही-मन चाहते हैं कि अभी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल की जिम्मेदारी निभा रहे राम नाईक को यह मौक़ा दें। नाईक संघ की भी पसंद हैं। लेकिन सारा दारोमदार तो इस पर है कि वे भाजपा के सहयोगी दलों की कितनी पसंद बनते हैं? संघ का वश चले तो वह मोहन भागवत को ही राष्ट्रपति भवन में बैठा दे। मगर इतनी मनमानी भारत का लोकतंत्र उसे कहां करने देगा?
मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र भाई कभी इतने उदार हो पाएंगे कि लालकृष्ण आडवाणी को अपनी पार्टी के मार्गदर्शक-मंडल से बाहर ला कर राष्ट्रपति भवन भेज दें। वे यह मुरव्वत मुरली मनोहर जोशी या शांता कुमार के लिए भी दिखाने वाले नहीं हैं। अपने सहयोगी अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल को भी यह ज़िम्मेदारी सौंपने को वे कभी तैयार नहीं होंगे। अगले बरस की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा की हालत कितनी ही बेहतर हो जाए, अपने बूते पर किसी को राष्ट्रपति चुनवा लेने लायक बहुमत उसके पास फिर भी नहीं होगा। कांग्रेस की मदद के बिना किसी को राष्ट्रपति बनाना मुमकिन न होने की हालत में शरद पवार सबसे पहले यह गेंद लपकने की कोशिश करेंगे। मगर तब संघ टंगड़ी मारने को तैयार बैठा मिलेगा। पहले हामिद अंसारी को भी लगता था कि कांग्रेस की भूमिका रही तो वे अगली पायदान चढ़ जाएंगे। लेकिन अब वे भी समझ गए हैं कि मोदी और कुछ भी करें, उन्हें तो इससे आगे नहीं जाने देंगे।
बावजूद इसके कि मुखर्जी ने दो-तीन बार अपने भाषणों में ऐसी बातें कही हैं, जिन्हें मोदी के लिए सख़्त ताईद माना गया, कुल मिला कर सरकार के प्रति उनका रवैया सकारात्मक ही रहा है। चलते-फिरते विश्व-कोष का दर्ज़ा तो उन्हें अरसे से मिलता रहा है और मोदी भी इसके लिए उनका गुणगान करते थकते नहीं हैं। विपक्ष के अच्छे-खासे विरोध के बाद भी भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर मुखर्जी ने एक नहीं, तीन-तीन बार दस्तखत किए। उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश की सरकारों को बर्खास्त करने पर भी अंततः उन्होंने सहमति दे ही दी थी। बाद में उन्हें इन सभी मामलों में आलोचना भी झेलनी पड़ी। इसलिए अपने आसपास के तमाम कंटकों को दूर करने के लिए मोदी को भी अगले साल की गर्मियां आते-आते यह फ़ैसला लेने में ठंडी राहत महसूस हो सकती है कि प्रणव मुखर्जी का ही फिर तिलक कर ऐलान कर दिया जाए कि जब बात संवैधानिक पदों के मामले की हो तो हम राजनीति से परे रह कर निर्णय लेते हैं।
ऐसा होने पर उप-राष्ट्रपति की कुर्सी पर अपना पसंदीदा चेहरा बैठाना संघ के लिए आसान हो जाएगा। मोदी-सरकार के कूचे से निकल कर मणिपुर के राज-भवन पहुंच गईं नजमा हेपतुल्ला की यह उम्मीद अभी तक तरल है कि वे हामिद अंसारी की जगह लेंगी। इसके लिए संघ-स्तुति में कोई कसर वे बाकी नहीं रख रही हैं। लेकिन शहरी विकास और सूचना-प्रसारण मंत्रालयों का ज़िम्मा संभाल रहे एम. वेंकैया नायडू उप-राष्ट्रपति की कुर्सी के लिए उचक-उचक कर अपना चेहरा पिछले एक साल से दिखा रहे हैं। राम नाईक को भी सांत्वना-पुरस्कार के तौर पर इसके अलावा और क्या दिया जा सकता है? सो, संघ और मोदी के लिए इस धर्म-संकट से उबरना भी मुश्क़िल होगा।
अगर प्रणव मुखर्जी जुलाई में फिर राष्ट्रपति बनते हैं तो अपनी उम्र के 81 बरस पार कर 82 का आंकड़ा छूने की तैयारी कर रहे होंगे और 87 की उम्र तक आराम से अपनी भूमिका निभाते रहेंगे। राम नाईक अगर उप-राष्ट्रपति बने तो 83 साल के पूरे हो चुके होंगे और 88 साल की उम्र तक राज्यसभा की सदारत करते रहेंगे। मुखर्जी ने 76 की उम्र में राष्ट्रपति पद की ज़िम्मेदारी संभाली थी। नीलम संजीव रेड्डी राष्ट्रपति बनने वाले युवतम व्यक्ति थे। वे 64 बरस की उम्र में इस पद पर पहुंच गए थे। ज्ञानी जैल सिंह 66 साल की उम्र में राष्ट्रपति बने थे। भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद शपथ लेते वक़्त 68 के थे। फ़खरुद्दीन अली अहमद 69 की उम्र में इस कुर्सी पर बैठे थे। ज़ाकिर हुसैन यह ज़िम्मेदारी संभालते वक़़्त 70 साल के थे। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को यह मौक़ा 71 की उम्र में मिला था। प्रतिभा पाटिल 73 की उम्र में इस कुर्सी तक पहुंची थीं। सर्वपल्ली राधाकृध्णन जब राष्ट्रपति बने तो 74 के थे। वराह वेंकट गिरि 75 साल की उम्र में इस पद पर पहुंचे थे। रामस्वामी वेंकटरामन और के.आर. नारायणन राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करते-करते 77 साल के हो चुके थे।
पहली बार स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार में आई भाजपा के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले ढाई साल में देश की हर नीति-निर्धारक कुर्सी खुले दिल से अपने पितृ-संगठन को नवाज़ी है। इसलिए राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के पदों को लेकर उनकी फ़राखदिली देखना भी दिलचस्प होगा।
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