ढपोरशंख से उलट-गूंज के सबूत – Global India Investigator

ढपोरशंख से उलट-गूंज के सबूत

Rahul Gandhi arrested for OROP suicide protest

लोकतंत्र के चीरहरण का जैसा दृश्य देश ने इस बुधवार-गुरुवार को देखा, द्वापर में उसे देख कर दुर्योधन की आंखें भी पथरा जातीं। विपक्ष के निर्वाचित नुमाइंदों को ठेंगे पर रखने के सरकारी दंभ की इंतिहा इन दो दिनों में देश ने देखी। सरकारी रवैये से परेशान हो कर आत्महत्या कर लेने वाले पूर्व-सैनिक के परिवार को ही हिरासत में ले लेने वाली निर्लज्ज पुलिस के बर्ताव का विरोध करना भी जिस सरकार को इतना नागवार गुजरता हो, उसके साए तले हम लोकतंत्र को कितने दिन सुरक्षित मान सकते हैं? ऐसे मौक़ों पर सांत्वना-प्रयासों को जो सरकार सियासत का हिस्सा मानती हो, उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक समझ को आप क्या कहेंगे?

ठीक है कि कांग्रेस आज अमित शाह की भारतीय जनता पार्टी के बनिस्बत संसद में कम संख्या वाली पार्टी है। लेकिन देश भर में चप्पे-चप्पे पर उसकी उपस्थिति भाजपा से कम तो नहीं है और कल तक वह केंद्र की सरकार चला ही रही थी। आखिर राहुल गांधी आज विपक्ष की भूमिका निभा रही इस पार्टी के उपाध्यक्ष और निर्वाचित सांसद हैं। उन्हें यह हक़ क्यों नहीं होना चाहिए कि वे किसी दुःखी परिवार को सांत्वना देने कहीं जा सकें? क्या अब जन-प्रतिनिधियों को किसी की मदद के लिए पहुंचने से पहले पुलिस की इजाज़त लेनी होगी?

अरविंद केजरीवाल कैसे भी हों, वे आख़िर दिल्ली के निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं। बिलकुल वैसे ही, जैसे बावजूद तमाम छींटों के, नरेंद्र भाई मोदी देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं। अपने राज्य में किसी का दुःख-दर्द पूछने के लिए जा रहे मुख्यमंत्री को अगर पुलिस ऐसे हिरासत में लेने लगेगी तो चल गया लोकतंत्र! ऐसे में तो लोगों को नरेंद्र भाई के लोकतंत्र से बेहतर केजरीवाल का अराजकतंत्र ही लगने लगेगा। अगर जनतंत्र के नाम पर केजरीवाल गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या पर संसद के सामने सड़क पर सो कर रात गुजारने की अराजकता करते हैं तो उसी जनतंत्र में नरेंद्र भाई की पुलिस एक मुख्यमंत्री पर बंदिश लगाने की अराजकता करती है। दोनों में आखिर फ़र्क ही क्या है?

यह पिछले ढाई साल में लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना की लगातार मिसालों का ही नतीजा है कि देश ने पहली बार मंझले दर्ज़े के एक पुलिस अफ़सर को लोकतंत्र की व्याख्या करते सुना। मैं तो हैरत में था कि किस ठसक के साथ वह बता रहा था कि लोकतंत्र के मायने यह नहीं है कि राहुल गांधी अस्पताल में आकर बखेड़ा खड़ा करें और हम यानी पुलिस देखती रहे। लोकतंत्र की मर्यादाओं का पालन कराने में लगे इस पुलिस अफ़सर ने टेलीविजन पत्रकारों से कहा कि हमने राहुल गांधी तक को यहां से बाहर का रास्ता दिखा दिया है यानी बाक़ियों की तो हमारे सामने औकात ही क्या है?

सो, बाद में हमने यह भी देखा कि किस तरह पुलिस वाले उन जन-प्रतिनिधियों को ठेल-ठेल कर बसों में धकेल रहे हैं, जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में यहां तक पहुंचने के लिए पता नहीं कितनी क़दमताल की है। अहंकार ऊपर से रिसता-रिसता जब सबसे निचले प्रशासनिक पायदान पर इस तरह पहुंच जाए तो समझ लीजिए कि जनतंत्र की श्रद्धांजलि सभा के आयोजन की तैयारियां अपने आख़िरी चरण में हैं।

आंदोलनरत राहुल गांधी को लोगों ने पहले भी देखा है, लेकिन पहली बार उन्होंने इस तरह स्वतः-स्फूर्त राहुल के भीतर बुनियादी सवालों की लपट सुलगते देखी। बुधवार को जो हो रहा था, उसे देख कर राहुल संजीदा सरोकार से भरे हुए थे। उकसावों की तमाम क्षुद्र कोशिशों के बीच वे पूरी तरह संयत भी रहे। गुरुवार को पुलिस ने उन्हें जंतर-मंतर से उठा लिया और थाने ले गई। बावजूद इसके यह राहुल ही हैं कि अब तक नियमगिरि से ले कर भट्टा-पारसौल तक और जेएनयू से ले कर इस बुधवार-गुरुवार तक के सभी मौक़ों पर उनके आंदोलन के समंदर ने अपनी सरहदें नहीं लांघी। वरना आंदोलन की सियासत करने वाले तो अच्छी तरह जानते हैं कि कब एक कंकर फैंकने भर से लहरें इतना विकट रूप ले लेंगी कि सरकारों के लिए उनसे निपटना मुश्क़िल हो जाए।

राहुल की दादी इंदिरा गांधी के लिए जेल बचपन से ही कोई अनोखा शब्द नहीं था। इंदिरा के पिता जवाहरलाल नेहरू के जीवन के डेढ़-दो दशक जेलों में बीते थे। 95 बरस हो गए, जब नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू पहली बार जेल गए थे और आनंद भवन पर अंग्रेजों की पुलिस के छापे पड़े थे। राहुल इस जेल-वंशावली की पांचवी पीढ़ी की नुमाइंदगी कर रहे हैं। इसलिए अगर कोई यह सोचता हो कि जेल जाने की नौबत आने पर उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाएगी तो वह मूर्खों के स्वर्ग में विचर रहा है। जो वंशवादी राजनीति की बात करते हैं, सतत संघर्ष की वंशावली सामने देख उनकी निगाहें धुंधली क्यों हो जाती हैं? पूर्व-सैनिक के परिवार को हिरासत में लेने की बेहूदगी से हुई फ़जीहत से कन्नी काटने की हड़बड़ाहट में भाजपा-सरकार दो दिनों तक एक-के-बाद-एक मूर्खताएं करती रही। नरेंद्र भाई और उनके हमजोलियों को अंदाज़ ही नहीं है कि इन दो दिनों ने पूरे देश में कांग्रेस की लौ किस तरह फफका दी है!

जिनके पास अपनी गठरी से झांकते हरेंद्र पांड्या के सवालों के जवाब न हों, जिनके पास अपने आंचल में समाई माया कोडनानी के बारे में उठते सवालों के जवाब न हों, उनके पास बेज़ुबानों का दर्द समझने की संवेदना होने की उम्मीद कैसे करें? जिनके पास असली सवालों के जवाब नहीं होते, वे हर बात पर इसी तरह तिलमिलाते हैं। पूर्व-सैनिक की आत्महत्या पर राहुल के रुख को राई का पहाड़़ बनाने की कोशिश बताने वालों को दरअसल अब यह अहसास होने लगा है कि डमरू बजा कर मजमा इकट्ठा कर लेना तो और बात है, लेकिन इस मजमे की असली मुश्क़िलों को दूर कर पाना और बात। ढाई बरस में वह सपना परत-दर-परत घ्वस्त हो गया है, जिसे दिखा कर नरेंद्र भाई ने हस्तिनापुर हथिया लिया। वे जानते तो पहले भी थे, लेकिन अब कहने भी लगे हैं कि उनके पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिसे घुमा कर वे रातों-रात सब-कुछ हरा-भरा कर दें। सो, ढाई बरस बाद अपने ढपोरशंख से आने वाली उलट-गूंज की चिंता अब भाजपा को खाने लगी है। बुधवार और गुरुवार को दिल्ली में जो हुआ, वह इसी हताशा का संकेत है।

जनतंत्र में शक्ति-पुंज बनने के कुछ निश्चित नियम हैं और लगता है कि नरेंद्र भाई को वे मालूम ही नहीं हैं। जनतंत्र आत्मकेंद्रितता का विलोम है। जो जितना ही आत्मकेंद्रित होगा, जनतंत्र में वह उतना ही शक्तिहीन होगा। शक्तिसंपन्न बनने के लिए तो सामुदायिक होना ही होगा। जब भी किसी सत्ता को लगने लगता है कि उसका भेद खुलने लगा है तो वह दमन के छुटभैये तरीकों का सहारा लेने लगती है। जिस-जिसने यह ग़लती की, वह जाता रहा। इसलिए चौथाई सदी बाद पूरे बहुमत से चुन कर आई मौजूदा सरकार का नौ सौ दिन पूरे करते-करते यह हाल हो गया है कि उकताया हुआ देश पार जाने की छटपटाहट लिए विपक्ष की नैया के इर्द-गिर्द आकर खड़ा हो गया है। समय के रथ का घर्घर नाद न सुनने की कसम खाए बैठे लोग उसे भले अनसुना करें, पूरे मुल्क़ को तो वह अब साफ़ सुनाई दे रहा है।

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