गुरमेहर अपने घर वापस चली गई।
वह कहती है, मैं जितना कर सकती थी, किया।
वह कहती है, मुझे अब अपनी पढ़ाई करने दो।
गुरमेहर के घर लौट जाने में उसकी बेबसी है। अब सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान देने के उसके फ़ैसले में लाचारी है। वह शहीद की बेटी है, इसलिए बोले बिना रह नहीं पाई। वह शहीद की बेटी न होती तो शायद बोलने से पहले ही सौ बार सोचने की परंपरा में पगी होती। गुरमेहर ने कितनों को कितना झकझोरा, मालूम नहीं। लेकिन मुझे इतना ज़रूर मालूम है कि जिन्हें गुरमेहर नहीं झकझोर सकी, पृथ्वी उनके भार से, आज नहीं तो कल, फटेगी ज़रूर।
युद्ध की त्रासदी पर अपनी अकुलाहट को बह जाने से नहीं रोक पाना क्या ऐसा ज़ुर्म है कि हम गुरमेहर पर इस तरह बरस पड़ें? सामाजिक संसार, खेल-जगत और फिल्मी-दुनिया की मशहूर, लेकिन अर्द्ध-शिक्षित हस्तियों ने गुरमेहर के बारे में जिस तरह की बातें कहीं, उनसे तो लगता है कि आजकल मालियों के हाथों ने ही आरियां उठा रखी हैं। पंचशील-पंचशील जपने वाले देश का यह दृश्य देख कर क्या आपको डर नहीं लगता?
1930 में एक फिल्म बनी थी ‘ऑल क्वाइट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट’। इसमें बताया गया था कि युद्ध की विभीषिका युवा सैनिकों के मन पर कैसा असर डालती है। इतने कम संवादों वाली और फिर भी इतना गहरा असर छोड़ने वाली इक्कादुक्का फिल्में ही दुनिया में बनी होंगी। यह फिल्म देखने वालों को यह समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी कि जब युद्ध सैनिकों के मन को भी हिलाए बिना नहीं छोड़ता है तो शहीदों के बच्चों या परिजन के मन पर वह कैसा असर छोड़ता होगा। युद्ध की त्रासद गहराई को आपकी अक़्ल के आंगन में छपाक से उड़ेंल देने वाले साहित्य और उन पर बनी फिल्मों की देश-दुनिया में कोई कमी नहीं है। लेकिन हमारे समय की असली त्रासदी यह है कि किसी गुरमेहर पर पिल पड़ने की ताक में बैठे हमारे ट्वीट-कर्मियों और फ़ौरी-बयानबाज़ों को यह सब पढ़ने-देखने की फु़र्सत नहीं है।
‘द लांगेस्ट डे’ 55 साल पहले बनी थी। ‘क्रॉस आफ़ आयर्न’ 1977 में बनी। मगर गुरमेहर पर अपने शब्दों की मेहर बरसा रहे एक भी बुद्धिहीन-तन को युद्ध के रोमांच की जगह, युद्ध से उपजे आंसुओं का कुछ भी ख़्याल होता तो वे अपनी-अपनी बनैटी घुमाने के पहले कुछ तो सोचते। युद्धों की हकीक़त जानने से हम दरअसल मुंह चुराते हैं। 1986 में वियतनाम युद्ध पर एक फिल्म बनी थी ‘प्लाटून’। यह फिल्म बताती है कि कैसे मनुष्य की मासूमियत ही किसी भी युद्ध का पहला शिकार होती है। यूं तो अधिकतर फिल्में किसी-न-किसी सच्ची कथा से प्रेरित होती हैं, लेकिन 1993 में बनी ‘शिंडलर्स लिस्ट’ पूरी तरह एक सच्ची कहानी पर आधारित थी। ऑस्कर शिंडलर ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के कब्ज़े वाले पोलैंड में एक नात्ज़ी शिविर से 1200 यहूदियों की जान बचाई थी। इस पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म संदेश देती है कि जो एक भी प्राण बचाता है, किस तरह पूरे संसार को बचाने का काम करता है।
खुशवंत सिंह की पुस्तक ‘ट्रेन टु पाकिस्तान’ आए 61 साल हो गए हैं, लेकिन मुझे पक्का भरोसा है कि राष्ट्रवाद के घनघोर हिमायतियों में से ज़्यादातर ने उसे नहीं पढ़ा है। सआदत हसन मंटो की छोटी-सी कहानी ‘तोबा टेकसिंह’ भी इनकी निग़ाहों से नहीं गुज़री है। ऐसे में लैरी कॉलिन्स और डॉमिनिक लैपियर के ‘फ़्रीडम ऐट मिडनाइट’ के काले अक्षर तो भैंस बराबर ही हुए। सलमान रश्दी के ‘मिडनाइट चिल्ड्रन’ से साबका पड़ना तो दूर राही मासूम रज़ा के ‘आधा गॉव’ का नाम भी जिन्होंने नहीं सुना, वे भी जब गुरमेहर के बारे में अपने विद्वत-विचार ज़ाहिर करने से बाज़ नहीं आ रहे हों तो हमें भारतीय संस्कृति के मौजूदा ठेकेदारों से चिंतित होना ही चाहिए।
इंतज़ार हुसैन ने भारत के विभाजन के दर्द को ‘बस्ती’ में उकेरा है। टुकड़ों में बंटने की पीड़ा को ‘ख़ामोश पानी’ और ‘पिंजर’ जैसी फ़िल्मों ने कैनवस दिया है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तो जन्मे भी भारत के उस हिस्से में थे, जो पाकिस्तान हो गया। लेकिन वे यह कहते-कहते ही चल बसे कि ‘वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं’। गुरमेहर पर लानत भेजने वाले फ़ैज़ के इस विलाप पर क्या कहेंगे कि ‘ये वो सहर तो नहीं, जिसकी आरज़ू लेकर; चले थे यार, कि मिल जाएगी कहीं-न-कहीं, फ़लक के दश्त में तारों की आखिरी मंजिल; चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई’।
निदा फा़जली भरतखंड के उस हिस्से में जन्मे हैं, जो अब राष्ट्रवाद के पुरोधाओं की जन्मभूमि है। वे पाकिस्तान जा कर लौटे तो उन्होंने लिखा, ‘हिंदू भी मज़े में हैं, मुसलमां भी मज़े में; इन्सान परेशान यहां भी है, वहां भी’। लेकिन निदा की ऐसी फिक्र से किसी को क्या मतलब? कैफ़ी आज़मी के आज़मगढ़ को आज तिरछी निग़ाहों से देखने वाले उनके भीतर की यह शिद्दत आसानी से भुला देते हैं कि ‘सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो; कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी’। लेकिन खिड़कियां बंद करने के इस दौर में खिड़की खोलने की बात करने वालों पर तो तोहमत ही लगेगी।
हर शब्द का अपना ब्रह्मांड होता है। हर भाषा का अपना एक ख़ास संस्कार होता है। लेकिन अब वह समय नहीं रहा कि हम महज़ बीस बरस पहले हमारी दुनिया में आई एक गुरमेहर की हिचकियों पर अपने शब्दों की बौछार करने के पहले कुछ सोचें। वह वक़्त गया जब किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में अपने शिक्षक के सामने नज़रें उठाना भी हमें पाप लगता था। ऐसी ग़लती पर कहीं भी पनाह नहीं मिलती थी। मगर अब तो वरिष्ठ से वरिष्ठ अध्यापिका तक को अवानाई अंदाज़ में लताड़ने वालों की पीठ थपथपाने के लिए राज-दरबारी कमर कसे बैठे हैं। भले लोग अपने शब्दों से एक ब्रह्मांड रचते हैं, भले लोग अपने संगीत से एक ब्रह्मांड रचते हैं, लेकिन जो लोग अपनी सियासत से इस ब्रह्मांड को नष्ट करते हैं, उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं।
इतने पर भी आप अपना ज़ुर्म मत पूछिए। आपका ज़ुर्म यह है कि आप उनके जुल्म में शामिल नहीं हैं, जो श्मशान से क़ब्रिस्तान तक और दीवाली से रमज़ान तक हर जगह फैले हुए हैं। अपने ही घर को आग लगा कर जो बैठे-बैठे आराम से ताप रहे हैं, उन पर अगर आपको अब भी गुस्सा नहीं आता है तो हवाओं के रुख को समझ लीजिए। हवाओं के इस रुख पर भावी मौसम का पैगाम लिखा है। जिन्हें यह पैगाम दिखाई नहीं देता, मैं उन्हें नमन करता हूं। जिन्हें नहीं मालूम, उन्हें मालूम होना चाहिए कि हमारी आदि-स्मृति में बसा महाभारत भी युद्ध-काव्य नहीं, शांति-काव्य है।
महाभारत के 18 पर्वों में ऐसे कई उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि युद्ध टालने की कोशिश एक बार नहीं, बार-बार हुई। इस महाभारत के अंश भगवद्गीता की 5151वीं जयंती घूमधाम से मनाने वाले कृष्ण की गीता को तो राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का आलाप बांधते हैं, मगर महाभारत के युद्ध-विरोधी संदेश को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। वह युद्ध किसी के भी बीच हुआ हो, मगर एक युद्ध में अपने पिता को खोने वाली गुरमेहर की आंखों के सूजे पपोटे जिनकी आंखें इतनी भी नम नहीं करते कि उसके लब आज़ाद रहने दें, उनसे अगर आपको अब भी कोई उम्मीद बाकी है तो मैं दसों गुरुओं से आप पर मेहर करने की अरदास करता हूं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी हैं।)
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