ताल से ताल मिले तो अब भी देर नहीं – Global India Investigator

ताल से ताल मिले तो अब भी देर नहीं

नरेंद्र मोदी से 2019 का चुनावी महायुद्ध लड़ने के पहले कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों को 2018 का साल ख़त्म होते-होते दस राज्यों में भारतीय जनता पार्टी से मुठभेड़ के लिए अपने को तैयार करना है। अभी हुए पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस ने भले ही तीन में भाजपा को पीछे छोड़ा, लेकिन दो में कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष जिस तरह भाजपा से पिछड़ा, उसने सबको सकते में ला दिया है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा की जीत के तूफ़ान को ईवीएम का क़माल बताने वाली मायावती को सही नहीं मानने वाले भी इतना तो सही मानेंगे कि गोवा और मणिपुर में सरकार बनाने के लिए मोदी के अमित शाह ने सब-कुछ उठा कर उसूलों की मय्यत पर रख दिया। यह सवाल भी अपनी जगह है कि जब भाजपा के उड़न-खटोले गोवा और मणिपुर के आसमान में फर्रांटे भर रहे थे तो कांग्रेस खर्रांटे क्यों ले रही थी?

जो हुआ, सो, हो गया। यह राहुल गांधी की वजह से नहीं, उनके बावजूद हुआ है। मैं मानता हूं कि राहुल आज भी अपनी पीढ़ी के अकेले ऐसे जन-नायक हैं, जिनकी सियासी-नेकनीयती की सुई किसी भी पैमाने पर सबसे ऊंचे बिंदु को छूती है। मुसीबत सिर्फ़ इतनी है कि उनकी इस गुणवत्ता के मैदानी-प्रदर्शन को संजीदा-सहारे नहीं मिले। मैं राहुल को ज़्यादा नहीं जानता। लेकिन इतना जानता हूं कि जिस दिन यह हो जाएगा, राहुल की राजनीतिक चैतन्यता सबको चकित करने का माद्दा रखती है। वे चाहें तो 2019 आते-आते अपनी इस अंतर्निहित शक्ति को साबित भी कर सकते हैं।

कांग्रेस और पूरे विपक्ष के लिए अब तलवार की धार पर चलने का असली वक़्त आ गया है। यह साल ख़त्म होते-होते दो राज्यों में चुनाव होंगे। हिमाचल प्रदेश की विधानसभा का कार्यकाल 7 जनवरी 2018 को ख़त्म हो रहा है और गुजरात की विधानसभा का 22 जनवरी को। दोनों प्रदेशों में इस बरस दिसंबर में चुनाव कराने होंगे। हिमाचल में कांग्रेस की सरकार है और गुजरात में भाजपा की। दोनों राज्यों में 250 सीटें हैं। पिछली बार हुए चुनावों में इनमें से 93 कांग्रेस ने जीती थीं और 147 भाजपा ने। 68 सदस्यों वाली हिमाचल विधानसभा में भाजपा कांग्रेस से दस सीटें पीछे रही थी और उसके 26 विधायक जीते थे। 182 सदस्यों वाली गुजरात विधानसभा में कांग्रेस ने 57 सीटें जीती थीं। कांग्रेस को हिमाचल पर अपना कब्जा बनाए रखने के लिए जीत के अपने पिछले आंकड़े को कमोबेश बनाए रखना होगा। गुजरात में सत्तासीन होने के लिए उसे अपने खाते में कम-से-कम 35 सीटें और जोड़नी होंगी।

2018 की शुरुआत भी तीन राज्यों के चुनाव से होगी। मार्च में मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा की विधानसभाओं का कार्यकाल ख़त्म हो जाएगा। सो, उनके चुनाव फरवरी में होंगे। कर्नाटक की विधानसभा के चुनाव मई में होने हैं। तीन पूर्वोत्तर राज्यों की कुल 180 सीटों में पिछली बार भाजपा का कोई नामलेवा नहीं था। उसे सिर्फ़ नगालैंड में 4 सीटें मिली थीं। मेघालय और त्रपुरा में भाजपा का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता था। कांग्रेस को मेघालय में 30 और त्रिपुरा में 4 सीटें मिली थीं। त्रिपुरा में वाम दलों की ठोस मौजूदगी में सेंध लगाने की इस बार भाजपा पूरी कोशिश करेगी। नगालैंड और मेघालय में स्थानीय दलों को लीलने के लिए भी उसकी लार अभी से टपक रही है।

2018 के अप्रैल अंत या मई की शुरुआत में कर्नाटक की 224 सीटों के लिए चुनाव होंगे। पिछली बार भाजपा को सिर्फ़ 44 सीटें मिली थीं और कांग्रेस के 121 उम्मीदवार जीते थे। बहुमत के आंकड़े से 9 ज़्यादा। 40 सीटें सेकुलर जनता दल ले गया था। इस बार कर्नाटक में कांग्रेस को अपनी गठरी अभी से बगल में कस कर इसलिए दाबे रखनी होगी कि चुनावी नतीजों की लटकन के दौर आते ही सबको खंडाला ले जाने की ताक में बैठी भाजपा ‘ऐ क्या बोलती तूं…’ पूछने में एक लमहा भी नहीं लगाती है। इसलिए खेत उजड़ने के बाद नीलगायों की करतूत पर दीदे बहाने से बेहतर है कि कांग्रेस अभी से कर्नाटक के कण-कण पर निग़ाह रखे।

2018 के मध्य-दिसबंर में मिजोरम की विधानसभा का कार्यकाल ख़त्म होगा और 2019 के जनवरी की शुरुआत में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान की विधानसभाओं का। इसलिए इन चार राज्यों के चुनाव भी नवंबर 2018 में हो जाएंगे। मिजोरम की 40 सीटों में से भाजपा को पिछली बार एक भी नहीं मिली थी और कांग्रेस के खाते में 34 सीटें गई थीं। राहुल गांधी को यह सुनिश्चित करना होगा कि उत्तर-पूर्व की पहाड़ियों को हर हाल में अपने रंग में रंगने की भाजपाई हवस से उपजे समीकरणों की अनदेखी से कांग्रेस कहीं गच्चा न खा जाए।

छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में भाजपा की सरकारें हैं। यहां अब तक कांग्रेस और भाजपा का ही सीधा मुक़ाबला होता आया है। तीनों राज्यों की 520 विधानसभा सीटों में से पिछली बार सिर्फ़ 119 ही कांग्रेस को मिली थीं। 374 सीटें भाजपा की झोली में गई थीं। 90 विधायकों वाले छत्तीसगढ़़ में कांग्रेस बहुमत से 7 सीटें दूर थी। मध्यप्रदेश में उसे 60 सीटें और मिलतीं तो 203 सदस्यों वाली विधानसभा में उसकी सरकार बनती। 200 विधायकों वाले राजस्थान मे तो उसे 77 सीटें और हासिल होतीं तो जाकर काम बन पाता। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस टूट चुकी है और अलग हुए अजीत जोगी खुद कुछ कर पाएं-न-कर पाएं, भाजपा को उनसे फ़ायदा ही मिलेगा। इसलिए वहां मत-बंटवारे को रोकने की जुगत कांग्रेस को अभी से बिठानी होगी। मध्यप्रदेश और राजस्थान में फ़िलहाल तो कारगर तीसरी शक्तियां नहीं हैं, लेकिन कांग्रेस को ही इन दोनों प्रदेशों में भी यह पहल करनी होगी कि भाजपा से उसका सीधा मुक़ाबला सीधा ही रहे।

अभी जिस लोकसभा के नरेंद्र मोदी सर्वेसर्वा हैं, उसका अंतिम दिन 3 जून 2019 को है। यानी 2019 के अप्रैल-मई महीने फिर दो-दो हाथ करने के होंगे। पांच राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल भी मई के अंत और जून की शुरुआत में ख़त्म हो रहा होगा। सो, उनके चुनाव लोकसभा के साथ ही हो जाएंगे। ये राज्य हैं आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम। इनमें लोकसभा की 66 के साथ विधानसभा की 533 सीटों के लिए भी क़शमक़श होगी। आंध्र प्रदेश की विधानसभा में पिछली बार कांग्रेस को 175 में से एक भी सीट नहीं मिली थी। तेलंगाना में भी वह 119 में से 11 सीटें ही जीत पाई थी। ओडिशा की 147 में से भी 16 पर ही कांग्रेस जीती थी। इसलिए इन प्रदेशों में विधानसभा क्षेत्रों की मजबूती ही लोकसभा में किसी की भी जीत की बुनियाद बनेगी। सिक्किम में क्षेत्रीय रुझान के बीजों को अभी से खाद-पानी देने का काम भी कांग्रेस को करना होगा।

सोनिया-राहुल गांधी को 2019 की तैयारी करते हुए 2017 और ‘18 की बाधा-दौड़ पार करनी है। कांग्रेस के पास अकेले दौड़ने का विकल्प है। उसके पास सबके साथ मिल कर रिले-रेस में हिस्सा लेने का भी विकल्प है। अभी हुए पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने के ठीक एक दिन पहले शरद पवार से जा कर मिलने और उनसे विपक्ष की एकजुटता का पहलगामी बनने का अनुरोध करने की राहुल की पेशकश को मैं तो यथार्थपरक और सकारात्मक मानता हूं। दो तिहाई मतों को अपनी अलग-अलग टोकरियों में ले कर ऐसे ही अपने-अपने डमरू बजाते रहने वाले विपक्षी खोमचे अगर कांग्रेस की ताल से अपनी ताल नहीं मिलाएंगे तो मोदी ऐसे ही अपनी गदा घुमाते रहेंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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