चंद्रपुर के मोहन मधुकर भागवत ने कह दिया है कि अगर उन्हें राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव मिला भी तो वे इनकार कर देंगे। सो, फिलहाल भारत भागवत से बच गया। लेकिन वह इसलिए बच गया कि मूलतः पशु-चिकित्सक भागवत इतने नासमझ नहीं हैं कि यह न समझें कि उत्तर प्रदेश में आए तूफ़ान के बावजूद न तो अभी भारतीय जनता पार्टी के पास राष्ट्रपति चुनाव-मंडल में इतने मतों का जखीरा है कि वह किसी को भी, यानी भागवत तक को भी, अकेले अपने बूते पर राष्ट्रपति बनवा ले और भले ही कुछ लोगों को पूरा देश ‘रंग दे मुझे गेरुआ’ गाता दिखाई दे रहा हो, भारतीय समाज का बीजगणित भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी प्रमुख को राष्ट्र-प्रमुख के तौर पर गले उतारने की मनःस्थिति में अभी नहीं है। शिवसेना के उद्धव ठाकरे का तो भागवत को राष्ट्रपति भवन भेजने की पेशकश करते वक़्त घिसता क्या है? लेकिन भागवत तो जानते हैं कि इस फिजूल की बतकही से अगर वे खुद को अलग नहीं करते तो हिंदुओं के एक वर्ग के मन में बसी उनकी चमक भी धुंधली पड़ जाती।
मगर क्या हम भागवत के इनकार को उनका उपकार मान लें? राष्ट्रपति के चुनाव में क़रीब 11 लाख वोट होते हैं। जीतने के लिए क़रीब साढ़े पांच लाख वोट ज़रूरी हैं। भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सारे वोट मिल कर भी पच्चीस हज़ार वोटों का टोटा पड़ रहा है। यानी भाजपा खुद का तो ठीक, अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का भी संयुक्त प्रत्याशी दूसरों की मदद के बिना जिताने की स्थिति में नहीं है। पच्चीस हज़ार अतिरिक्त वोट अपनी तरफ़़ खींच लेना भाजपा के वोट-कबाड़ू महारथियों के लिए बड़ी बात नहीं भी हो तो भी भागवत अपनी साख का जुआ क्यों खेलते? इसलिए वे त्याग की भावना से ओतप्रोत हैं। लेकिन असली सवाल तो यह है कि अगर कभी ऐसी स्थिति आ जाए कि, सहयोगियों को छोड़िए, अकेले भाजपा की मुट्ठी में राष्ट्रपति चुनाव-मंडल के साढ़े पांच-छह लाख वोट आ जाएं तो वह किसी भागवत को भारत का राष्ट्रपति बनाने में किसी किस्म का संकोच करेगी या नहीं? तब कोई भागवत खुद भी इतना लिहाज़ बरतेगा या नहीं कि राष्ट्रपति भवन जाने से इनकार कर दे?
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की ताज़पोशी के बाद भी अगर आपके मन में कोई दुविधा है तो मैं आपकी भावनात्मक संवेदना को सलाम करता हूं। गोवा और मणिपुर में लोकतंत्र के सरेआम चीरहरण का मंचन देखने के बाद भी अगर कोई यह सोचता है कि तकनीकी बहुमत साथ होने पर भी भाजपा और भागवत सामाजिक लाज के घूंघट में रहेंगे तो वह सियासत के छायावादी दौर में रह रहा है। जो भाजपा अल्पमत को बहुमत में बदलने के लिए दीन-ईमान की परवाह नहीं करती है, बहुमत साथ होता तो वह स्वयंसेवकों की सेना के प्रमुख को देश की तीनों सेनाओं का प्रमुख बनाने का काम एक झटके में कर देती। इस जुलाई में ऐसा नहीं हो पा रहा है तो इसके लिए भाजपा की सदाशयता और भागवत की विनम्रता को नमन करने की नहीं, भारत के भाग्य को सराहने की ज़रूरत है। पांच साल बाद जब यह मौक़ा फिर आएगा तो हम कितने भाग्यशाली रहेंगे, तब देखेंगे।
इसका यह मतलब भी नहीं है कि जुलाई में देश को कोई ऐसा राष्ट्रपति ही मिल जाएगा, जिस पर संघ की छाप नहीं होगी। आखिरकार राष्ट्रपति तो वही बनेगा, जिसे भाजपा और उसके सहयोगी दल चाहेंगे। वे सुमित्रा महाजन को क्यों नहीं चाहेंगे? वे राम नाईक को क्यों नहीं चाहेंगे? वे प्रणव मुखर्जी को ही दोबारा क्यों चाहेंगे? वे शरद पवार को क्यों चाहेंगे? उन्हें शरद यादव में क्यों दिलचचस्पी होगी? इसलिए अगर नरेंद्र मोदी अपने ‘मार्गदर्शक’ लालकृष्ण आडवाड़ी को राष्ट्र भवन भेजने के लिए राज़ी हो जाएं तो कोई हैरत मत कीजिए। इस गुरुदक्षिणा से मोदी मज़बूत ही होंगे, कमज़ोर नहीं।
एकजुट विपक्ष की अनुपस्थिति में देश की यह नियति तो अब तय-सी हो गई है कि उसके तमाम नीति-निर्धारक कंगूरों पर भाजपा के पितृ-संगठन की छांह रहे। तीन साल में एक-एक कर सभी संवैधानिक संस्थाओं को जिन हाथों के हवाले किया गया है, उनकी कलाई पर संघ-संप्रदाय का कलावा लिपटा हुआ है। आने वाले दिन ‘संघम शरणम गच्छामि’ के सुरों से आसमान गुंजाने के होंगे। समूचा विपक्ष अगर एक हो कर इस बाढ़ को नहीं थामेगा तो इस बहाव को अब कौन-से बांध रोकेंगे? आज का दौर लोकतंत्र की मर्यादाओं के उल्लंघन पर बैठ कर महज विलाप करने से नहीं टलेगा। इसके लिए तो अर्थवान सामाजिक-राजनीतिक समूहों को कमर कस कर अपने घरों से बाहर निकलना होगा। यह लड़ाई सिर्फ़ इंटरनेट के आसमान में नहीं, खेत-खलिहान में भी लड़नी होगी। जिन्हें लगता है कि देसी-परिभाषाएं गढ़ने के नाम पर भारत को जानबूझ कर जिस दिशा में ले जाया जा रहा है, वह सही नहीं है, उनके लिए यह समय बैठने का नहीं है।
पिछले छह-सात दशक में स्वतंत्र भारत जिस राह पर चला, उसे एकदम ग़लत ठहराने वाले आज हर मैदान में बेतरह सक्रिय हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संसार का कोई रंगमंच ऐसा नहीं है, जिस पर वे कूद-फांद नहीं कर रहे। उन्हें जवाब देने वाली शक्तियां पिछले कुछ वर्षों में अचानक दुबक-सी गई हैं। विरोध की हिम्मत का पस्त होना किसी भी समाज की बेहतरी के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। अपनी बुनियादी ज़िम्मेदारियों से मुंह चुराने वालों के नाम किसी निओन-साइन पर लिखे जाएं, न लिखे जाएं, जन-मानस के अदृश्य क्षितिज पर उनके निशान अमिट रहते हैं। इसलिए वे सब, जो समय-पटल पर अपनी तटस्थता का अपराध दर्ज़ नहीं कराना चाहते, अपनी-अपनी गुफाओं से बाहर आएं।
जागरूक नागरिकों की खेप उस वैचारिक कारखाने में तैयार होती है, जिसमें दिन-रात मज़दूरी होती हो और जो सातों दिन-चौबीसो घंटे तीन पालियों में काम करते हों। सप्ताहांत की वैचारिक गौष्ठियों के आयोजन से राजनीतिक-सामाजिक विमर्श को बदलने की उम्मीदें करना अब बेकार है। वैचारिक भटकाव से आज निरंतर मुठभेड़ की ज़रूरत है। आज हम जिस दौर का सामना कर रहे हैं, वह इसलिए आया है कि पिछले कुछ वक़्त से हमारे रहनुमा दृढ़ता से अपनी बात कहना भूल गए थे। वे अगर अब भी बच-बच कर चलेंगे तो भारत की बुनियाद नहीं बचेगी। पांच हज़ार साल पहले हम जगतगुरु किसी मोहन भागवत की वजह से नहीं थे। भारत को सोने की चिड़िया किसी अमित शाह ने नहीं बनाया था। दूध-दही की नदियां योगी आदित्यनाथ के कारण नहीं बह रही थीं। भारत माता की जय और वंदेमातरम के नारे होठों पर इसलिए नहीं गूंजते थे कि वे किसी प्रवीण तोगड़िया ने ईज़ाद किए थे। फिर आज हमारी तमाम विरासत की रक्षा का भार संघ-कुनबे ने अपने कंधों पर कैसे ले लिया? हमारे राष्ट्रवाद की उद्दाम तड़प के ठेकेदार एकाएक ये कैसे बन बैठे? पिछले तीन साल से फलों की दुकान पर छिलके सजे हुए हैं, लेकिन कोई इस असलियत को ठीक से सामने नहीं ला पा रहा है। भारत भीतर से दरक रहा है, लेकिन लोग हैं कि ऊपर की परत के तात्कालिक चमकीलेपन को शाश्वत सत्य मान रहे हैं। इस मुलम्मे को रगड़ कर उतार फेंकने के काम में जितनी देर होगी, प्रलय उतनी नज़दीक आती जाएगी। ( लेखक न्यूज़-व्यूज़़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी हैं।)
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