प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी अपने एक उत्साहीलाल मंत्री की ऊंची कूद के थपेड़े से बाल-बाल बच तो गए, मगर इस बहाने उनके सहयोगियों के मन में उठने वाली तरंगें बेपर्दा हो गईं। मोदी को महात्मा गांधी से बड़ा बताने का दुस्साहस चूंकि भारत कभी बरदाश्त नहीं करेगा, इसलिए मोदी-मंडली उन्हें जवाहरलाल नेहरू से बड़ा साबित करने का दांव खेल रही है। सो, गुज़रे रविवार को जब केंद्र सरकार के पर्यटन मंत्री गुजरात में अपने प्रधानमंत्री के जन्म-नगर वडनगर गए तो वहां के रेलवे स्टेशन पहुंच कर उनके दिमाग़ में एक नायाब विचार आया। उन्होंने ऐलान किया कि इसी रेलवे स्टेशन पर एक कोने में बनी चाय की जिस दुकान पर बचपन में मोदी काम करते थे, उसे ऐतिहासिक पर्यटन केंद्र की तरह विकसित किया जाएगा।
मूर्खता को किसी चोहद्दी में बांधने की सोचना भी हालांकि मूर्खता ही है, मगर कई बार जब मूर्खता सारी हदें पार कर लेती है तो सबको अवाक कर देती है। पर्यटन मंत्री के मन-मस्तिष्क की यह तरंग इसी श्रेणी की थी। मुझे लगता है कि नरेंद्र भाई के रोंगटे भी इस विचार से खड़े हो गए होंगे। वे सिहर उठें होंगे और उन्हें लगा होगा कि पर्यटन मंत्री भले ही खुद चिकित्सक हैं, लेकिन इस वक़्त उनकी चिकित्सा की सख़्त ज़रूरत है। सो, कुछ ऐसा हुआ कि सोमवार की सुबह-सुबह पर्यटन मंत्री ने एक समाचार एजेंसी के संवाददाता को बुलाया और सफाई दी कि वडनगर के रेलवे स्टेशन का आधुनिकीकरण हो रहा है, लेकिन वहां की चाय-दुकान को पर्यटन केंद्र बनाने की कोई योजना नहीं है।
बात आई-गई हो गई। मगर बात आई-गई नहीं हुई है। इस प्रसंग ने यह उजागर किया है कि पुराने इतिहास पर रंदा फेर कर अपनी छवियां पोतने की ललक में डूबी एक व्यवस्था अपने बगलगीरों को बिना सोचे-समझे किस हद तक जाने को उकसाती है। पिछले तीन बरस से चल रही कोशिशों की ताब देख कर ही तो पर्यटन मंत्री को भी कुछ ऐसा अनोखा करने की प्रेरणा मिली होगी कि साहिबे-मसनद खुश हो जाएं। गनीमत है कि सबको सन्मति देने वाले ने नरेंद्र भाई को अपनी सुल्तानी के इस चरम-दौर में, बाकी तो ठीक, इस पायदान तक पहुंचने से बचा लिया। ज़रा सोचिए कि अगर अपने पर्यटन मंत्री का हाथ थामे भारत का प्रधानमंत्री अपने बचपन की चाय-दुकान को इतिहास के पन्नों पर इस अंदाज़ में दर्ज़ करा देता तो हम-आप कौन-सा मुंह ले कर अपने गांव जाते!
नरेंद्र भाई अपने पितृ-संगठन से जुड़े लोगों का बेहद लिहाज़ करते हैं। कोई और होता तो इस तरह की तरंग में बौराए अपने पर्यटन मंत्री को उसी दिन बाहर का रास्ता दिखा देता। मगर ऐसा करने से इतिहास बदलने की होड़ में लगी पूरी आल्हा-मंडली का हौसला पस्त होता। इससे बदलाव की रफ़्तार धीमी हो सकती थी। सो, यह भी नहीं दीखना चाहिए कि मूर्खता दंडित हुई। बवाल टालने के लिए बात आई-गई करना ज़्यादा बेहतर था। इसलिए वही किया गया। लेकिन ऐसी बातें क्या इस तरह आई-गई हो जानी चाहिए? गांधी जी की ऐनक की तरह अगर सबको अपना चश्मा संग्रहालय में रखने की चीज़ लगने लगेगा तो देश कहां जाएगा? अगर अपने लिखे को सब नेहरू के ‘भारत की खोज’ समझने लगेंगे तो इतना बोझ यह देश झेल पाएगा?
मोदी-राज के तीन बरस इतिहास के पूरे विमर्श को उलटी दिशा में मोड़ने के बुलडोजरी-उपक्रम से सने हुए हैं। उचित-अनुचित की परवाह किए बिना सनसनाती चली जा रही यह ताल-ठोकू प्रक्रिया ही उस मानसिकता को जन्म देती है कि सब अपनी तकली-चरखे को ले कर साबरमती आश्रम पहुंच जाएं और उन्हें वहां रखने की ज़िद लेकर धरना दे दें। इसी से यह (कु)विचार उपजता है कि अगर नेहरू आधी रात को संसद के केंद्रीय कक्ष में भारत की स्वाधीनता का ऐलान कर सकते हैं तो मैं एक नई कर-व्यवस्था का शंख आधी रात को उसी ‘पवित्र स्थान’ पर क्यों नहीं फूंक सकता? मूर्ति-भंजन की राह पर चलते हुए जब हम आगा-पीछा नहीं देखते और दाएं-बाएं से आ रही प्रतिक्रियाओं को हवा में उड़ा देते हैं तो एक राष्ट्र-राज्य की स्वाभाविक प्रकृति को नष्ट करने का काम करते हैं। जो इस काम में लगे हैं, उन्हें इसकी परवाह नहीं है। लेकिन बाकी सबको भी अगर इसकी परवाह नहीं होगी तो एक दशक बाद के भारत को पहचानना भी मुश्क़िल हो जाएगा।
मुझे यह देख कर कम हैरत होती है कि मौजूदा -व्यवस्था लोक-लाज की परंपराओं में कोई आस्था नहीं रखती है। ज़्यादा हैरत तो मुझे यह देख कर होती है कि विपक्ष अपने मूल-कर्म से विलग-सा हो गया है। जंगल के पेड़ तक जानते हैं कि अगर उन्हें फलना-फूलना है तो यह ऋतु बदलने से ही होगा। वे चूंकि जड़ हैं, इसलिए मौसम बदलने का इंतज़ार ही कर सकते हैं, सो, करते हैं। लेकिन जो चेतन हैं, उन्हें मौसम बदलने के लिए ज़रूरी कोशिशें करने से कौन रोकता है? और, अगर हालत यह हो गई है कि एक सुल्तान के आंख दिखाने से हिंद-केसरियों की टांगें कांपने लगी हैं तो फिर आइए, हम सब इस सल्तनत की सलामती की दुआ करें। ‘यथा राजा-तथा प्रजा’ का मंगलाचरण आपने जब पढ़ा होगा, पढ़ा होगा; अब ‘यथा प्रजा-तथा राजा’ का ताबीज़ हम सबकी बांह पर बंधा है। हमें अपने लिए उपयुक्त राजा मिल गया है। हमें अपने लिए उपयुक्त विपक्ष भी मिला हुआ है।
वैश्वीकरण ने भारत के बौद्धिक वर्ग की धार कुंद कर दी है, समाजविज्ञानियों को हाशिए पर ठेल दिया है और मेहनतकश वर्ग को रोज़ की दाल-रोटी में उलझा दिया है। भारत की जिस तरुणाई के भरोसे हम संसार भर में इतराते घूम रहे हैं, उसकी असलियत यह है कि वह नई प्रौद्योगिकी में इस कदर डूबती जा रही है कि ज़मीनी यथार्थ से कोसों दूर हो गई है। वह एक आभासी-दुनिया में विचर रही है। उसकी आक्रामकता नकारात्मक है। वह असुरक्षा, अविश्वास और अलगाव के बादलों से घिरी हुई है। ये बादल अपने आप छंटने वाले नहीं हैं। जब तक विचारों के वे गोले ईज़ाद नहीं होंगे, जिन्हें दाग कर हम ये बादल फाड़ सकें, तब तक ज़मीन को हरा-भरा करने वाली कोई बरसात नहीं होने वाली। लेकिन इस सब पर ध्यान किसका है?
अपने तरंगित-पर्यटन में मग्न लोग यह मर्म समझ ही नहीं सकते कि लोकतंत्र सिर्फ़ व्यवस्था नहीं है, वह तो एक संपूर्ण सभ्यता है। जब हमारे विचार और कर्मों से लोकतंत्र ज़ख़्मी होता है तो एक पूरी सभ्यता के नष्ट होने की शुरुआत होती है। लोकतंत्र सोच-विचार की स्वतंत्रता देता है, लेकिन सोच-विचार के प्रदूषण की आज़ादी नहीं देता। अगर नरेंद्र भाई ने बचपन में चाय की दुकान पर काम किया तो मैं उनके इस परिश्रम का सम्मान करता हूं। अगर वडनगर की चाय-दुकान से वे प्रधानमंत्री निवास तक पहुंच गए तो मैं उनकी इस यात्रा का अभिनंदन करता हूं। लेकिन अगर उनका पर्यटन मंत्री इस सफ़र के आरंभ-बिंदु को स्मारक बनाने की बात करता है तो मैं न हंस पाता हूं, न रो पाता हूं। स्मारक बने, न बने, मेरे लिए तो माथा पीटने के लिए यही काफी है कि मोदी के मंत्रिमंडल में बैठे एक मंत्री के मन में ऐसा विचार आया। जिन्हें इतनी भी समझ नहीं कि शासन-व्यवस्था की आसंदी पर बैठा जन-प्रतिनिधि किसी एक व्यक्ति, दल या विचारधारा का ग़ुलाम नहीं, समस्त लोक-आचार का नुमाइंदा होता है; उनके सामने अपने आंसुओं की बीन बजाने से भी क्या! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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