आज़म खान, लगता है, न तो आज़म हैं और न खान। आए दिन उनकी ज़ुबान से टपकते अल्फ़ाज़ तो यही साबित करते हैं कि वे अपने नाम से एकदम उलट संस्कार लिए इस दुनिया में विचरण कर रहे हैं। आज़म का मतलब होता है महान और खान वे होते हैं जो मुखिया होते हैं। यह तो पक्का ही है कि वे महान तो कतई नहीं हैं और मुखिया अगर वे हैं भी तो किसी ऐसे कबीले के होंगे, जो मनुष्यलोक का नहीं है। वरना बुलंदशहर के नजदीक राजमार्ग के किनारे मां-बेटी के साथ घटे हादसे पर उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार में आठ मंत्रालयों की ज़िम्मेदारी संभाल रहे आज़म खान को जो कारण दिखा, उसे देखने की जानी-बूझी हिमाकत करना सार्वजनिक जीवन में किसी के लिए इतना आसान नहीं है।
आज़म खान, राममनोहर लोहिया या जयप्रकाश नारायण की समाजवादी पाठशाला से पढ़ कर नहीं निकले हैं। उनकी सोच मुलायम सिंह यादव, रामगोपाल यादव और शिवपाल यादव के समाजवादी चिंतन की छांह में फली-फूली है। मुलायम ने जो थोड़ा-बहुत समाजवाद जेपी आंदोलन में सीखा था, अमरसिंहों और अमिताभ बच्चनों के चक्कर में वह सब तो कभी का दूसरे जेपियों की गोद में गिरा चुके। बेचारे रामगोपाल और शिवपाल से समाजवाद के ‘स’ को समझने की उम्मीद करना सूरज पर पानी ढूंढने जैसा है। आज़म खान के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव समाजवाद के पुरोधा भले ही नहीं हैं, लेकिन अगर उनसे भी आज़म ने कुछ सीख लिया होता तो अपनी सियासी जिंदगी में जुम्मे-की-जुम्मे ऐसी वैचारिक विपन्नता वे न दिखा रहे होते।
जब मुलायम को उन ‘बच्चो’ पर दया आती है, जिनसे बलात्कार की ‘ग़लती’ हो जाती है और केंद्र में उनकी पार्टी की सरकार बनने पर वे यह क़ानून बनाने का वादा करते हैं कि बलात्कारियों को फांसी नहीं हुआ करेगी तो बुलंदशहर-हादसे पर आज़म की जाज़म पर बिखरे बघनखों की चुभन का कोई क्या करे? जब हिमालय की बर्फ़ ही ज़हरीली हो जाए तो गंगा का पानी अमृत कहां से रहेगा? यही वज़ह है कि हमने सपा-सांसद और मुलायम के भाई रामगोपाल को संसद के बाहर पत्रकारों पर गुर्राते हुए यह कहते देखा कि वे सब उत्तर प्रदेश की छवि खराब करने में लगे हैं और जब बाक़ी जगह ऐसी घटनाएं होती हैं तब तो वे इतनी हाय-तौबा नहीं मचाते! यही वजह है कि हादसे के बाद बुलंदशहर का काम संभालने वाले वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को भी पत्रकार सम्मेलन में हमने यह प्रवचन देते सुना कि बलात्कार नाम की कोई चीज़ होती ही नहीं है।
नारी उत्पीड़न के मामलों में आज़म खान से ले कर समाजवादी पार्टी के अबू आज़मी तक की मोटी चमड़ी हम कोई पहली बार नहीं देख रहे हैं। नारी अधिकार के मसलों पर बजरंगदलियों, शिवसैनिकों, रामसेनानियों, तालिबानों, फ़तवेबाज़ों, खाप-पंचायतियों और छद्म-समाजवादियों में क्या आपको कहीं कोई फ़र्क़ नज़र आ रहा है? चार साल पहले जब अखिलेश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो शुरुआती संकेतों से यह उम्मीद बंधी थी कि क़ानून-व्यवस्था और विकास पर उनकी पकड़ गहराती जाएगी, लेकिन चाचाओं के चंगुल से वे मुक्त नहीं हो पाए और पितृ ऋण चुकाने की चाहत से उनके हाथ बंधे रहे। नतीजा यह है कि अगले चुनावों की तरफ़ बढ़ रहे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी अपने को तेज़ी से अप्रासंगिक होता देख रही है। बुलंदशहर हादसे पर आईं समाजवादी नेताओं की लट्ठमार प्रतिक्रियाओं ने अखिलेश की साख को एक झटके में दस पायदान नीचे खिसका दिया है।
अपनी चोरी गई भैंसों की तलाश में आसमान-पाताल एक कर देने वाले आज़म खान इससे पहले भी अपनी जु़बान से बहते पतनाले की कई मिसालें पेश कर चुके हैं। वे बलात्कार के लिए मोबाइल फोन के इस्तेमाल को सबसे प्रमुख कारण बता चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘कुत्ते के बच्चे का बड़ा भाई’ बताने वाले आज़म खान करगिल की पहाड़ियों को मज़हबी रंग दे कर फ़़ौज तक को हिंदू-मुस्लिम में बांटने की कोशिश कर चुके हैं। वे दावा कर चुके हैं कि उनके पास मोदी और दाऊद इब्राहीम के बीच पाकिस्तान में हुई मुलाक़ात का सबूत है। उन्हें पेरिस पर हुए आतंकवादी हमले में भी कुछ ग़लत नज़र नहीं आता है। वे संसार के सात आश्चर्यों में से एक ताजमहल को सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के हवाले करने के हिमायती हैं। वे राजीव गांधी और उनके परिवार को कोसने में अपनी ज़ुबान का चरम उपयोग करने से भी नहीं चूके हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग तो आज़म की नज़र में समलैंगिक हैं ही, लेकिन जब वे अपनी पर आते हैं तो अपने नेता मुलायम सिंह को भी ‘हिजड़ा’ घोषित करने से उन्हें कोई नहीं रोक पाता है।
शब्दों को चबा-चबा कर दार्शनिक मुद्रा में अपनी बात कहने वाले 67 वर्षीय आज़म खान राजनीतिक समाज के उस तबके का प्रतीक हैं, जिसके लिए मानवीय संवेदनाओं से ज़्यादा ज़रूरी अपनी क्षुद्र चौपड़ है। पिछले दो दशक में ऐसे राजनीतिकों की बाढ़ आई है, जो खुद की दुनिया में इतने मस्त हैं कि आगे का उन्हें कुछ दिखाई ही नहीं देता। उनके लिए न तो अतीत के सबक कोई मायने रखते हैं और न भविष्य की चिंताएं। वे वर्तमान में जीने को मूल-मंत्र मानते हैं और उनका यह वर्तमान सिर्फ़ सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही सिकुड़ा हुआ है। यह किसी एक राजनीतिक दल का नहीं, पूरी भारतीय राजनीति का शीर्षक-गान बन गया है। किसी भी हाल में अपने को जिंदा बनाए रखने के लिए क्षेत्रीय दलों ने पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक जो-जो किया, आज उसी का नतीजा है कि मानवता के खि़लाफ़ भयावह से भयावह हादसे पर भी सियासत की रूह नहीं कांपती है।
दलीलों की गेंद एक-दूसरे के पाले में फेंक कर अपनी जवाबदेहियों से बचने के इस खेल में कहीं हम इतने तो नहीं रमते जा रहे हैं कि जाने-अनजाने हमारे हाथों एक ऐसे संवेदनहीन राजनीतिक संसार का निर्माण हो रहा है, जो अंततः सब कुछ लील लेगा? संसद और विधानसभाओं की अर्थपूर्ण बहसें अब कहां सुर्खियां बनती हैं? सुर्खियां तो हंगामे बटोरते हैं। गंभीर संगोष्ठियों के सभागार खाली पड़े रहते हैं। सैकड़ों संगठन और हज़ारों लोग हर साल अपना वाजिब दर्द लेकर जंतर-मंतर आते हैं और बैठ कर लौट जाते हैं। उनकी बातों को न किसी पन्ने पर जगह मिलती है, न किसी परदे पर। सरकारों के कान तो अब इतने जूं-रोधी हो चले हैं कि वे शर्म से लाल होना ही भूल गए हैं।
इतने असंवेदनशील समय से गुजरते हुए भी अगर आपको डर नहीं लगता तो खतरा बहुत बड़ा है। ऐसी असंवेदनशील राज्य-व्यवस्था, ऐसी भोथरी संवेदनाओं वाले राजनीतिक और इतनी लाचार सामाजिक शक्तियां कोई शुभ संकेत नहीं हैं। मुद्दा बुलंदशहर तो है, मुद्दा आज़म खान भी हैं, लेकिन मुद्दा यह भी है कि अगर हमारे सामूहिक विरोध के तमाम प्रतिबिंब इतने धुंधले पड़ जाएंगे कि राजधानी से चंद मील दूर राजमार्गों पर घूम रहे दरिंदे भी हमें उद्वेलित नहीं करेंगे तो हम कैसे खुद को अपनी निगाह में गिरने से बचाएंगे? क्या कभी मुरथल और कभी बुलंदशहर देख कर सुबकते रहना ही हम अपनी नियति मान लें? जिस समाज में चार दिन बाद ऐसे हादसों की चर्चा भी कोई न करता हो, क्या वह समाज खुद की क़ब्र में पैर लटकाए नहीं बैठा है? हमारी संवेदनाओं का अगर यही हाल रहा तो हम अपना ही फ़ातिहा पढ़ने को तैयार रहें
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