बावजूद इसके कि शरद यादव 17 साल पहले बनी अटल बिहारी वाजपेयी की भारतीय जनता पार्टी सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं, मुझे धर्म-निरपेक्ष मूल्यों और राजनीति की शुचिता में उनकी व्यक्तिगत आस्था पर कभी कोई संदेह नहीं रहा। इसलिए आज जब वे इस कोशिश में लगे हैं कि भाजपा को उत्तर प्रदेश से दूर रखने के लिए समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, यूनाइटेड जनता दल, लोकदल और कांग्रेस को एक मंच पर ले आएं तो उनकी यह नेक-नीयती देख कर खुशी ही होती है।
अगर मुलायम के चचेरे भाई रामगोपाल ने अखिलेश के साथ मिल कर उनका खेल बिगाड़ न दिया होता तो शरद यादव ने तो सपा, राजद, जदयू, लोकदल, सेकुलर जनता दल और समाजवादी जनता पार्टी का पिछले साल विलय करा ही दिया था। सो, इस बार जब वे उत्तर प्रदेश के चुनावों के मद्देनज़र भाजपा-विरोधी महा-गठबंधन बनाने की मुहिम में लगे हैं और चाहते हैं कि कांग्रेस भी इसका हिस्सा बने तो उनकी इस चाहत के गंगाजल को मैं पवित्र ही मानूंगा। मैं नहीं जानता कि गुज़रे मंगलवार को जब शरद यादव सोनिया गांधी से मिले तो उन्होंने क्या कहा और क्या सुना। लेकिन इतना तो समझ में आता ही है कि ऐसे किसी भी महा-गठबंधन की परिकल्पना से सोनिया सिद्धांततः सहमत ही रही होंगी।
इस पर किसी सोच-विचार की ज़रूरत हो ही नहीं सकती कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में ही नहीं, पूरे देश में, अपने पैर फैलाने से रोकना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। क्या यह काम मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव और अमर सिंह के कंधों का सहारा लिए बिना हो सकता है? क्या यह काम अखिलेश यादव का पल्लू पकड़े बिना हो पाएगा? और, अगर हालात सचमुच ऐसे हैं कि बिना एक डाल पर बैठे उत्तर प्रदेश में भाजपा को चुनौती दी ही नहीं जा सकती है तो क्या कांग्रेस को अपना हाल इस मौजूदा हाल से मिला लेना चाहिए?
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास विकल्प क्या हैं? वह अकेले चुनाव में उतर सकती है या फिर महा-गठबंधन का हिस्सा बन सकती है। इस महा-गठबंधन में मायावती की बहुजन समाज पार्टी अभी तो दूर-दूर तक कहीं दिखाई देती नहीं है। ऐसे में क्या कांग्रेस के लिए सपा से सराबोर महा-गठबंधन से गलबहियां करने के बजाय बसपा से तालमेल के बारे में सोचना ज़्यादा मुफ़ीद होगा? पिछले बरस तक कांग्रेस की तरफ़ कनखियों से देख रहीं मायावती क्या अगले साल के चुनावी झूले पर कांग्रेस के साथ बैठने को आसानी से तैयार हो जाएंगी? अगर ऐसा हो भी जाए तो इसके बाद होने वाली त्रि-कोणीय रस्साकशी में कहीं भाजपा तो फ़ायदा नहीं उठा ले जाएगी?
मुलायम जानते हैं कि उनके लिए जितने शिवपाल और अमर सिंह ज़रूरी हैं, उतने ही अखिलेश भी ज़रूरी हैं। 76 साल के मुलायम अपने प्रदेश में समाजवादी कुनबे के पितृ-पुरुष भले ही हों, लेकिन इतना वे भी समझते हैं कि 43 साल के अखिलेश को पसंद करने वाला मतदाता सिर्फ़ तब तक उनके साथ है, जब तक घर एक है। घर बंटा तो किसी भी शिवपाल की संगठन क्षमता और किसी भी अमर सिंह की जुगाड़बाजी इस मतदाता समूह को मुलायम की झोली में नहीं डाल पाएगी। अखिलेश की चुनावी यात्रा के लिए तैयार खड़े मर्सिडीज-रथ ने उत्तर प्रदेश की हवा में यह संदेश अच्छी तरह घोल दिया है कि घर का दालान अब एक रहे-न-रहे, वे तो दीवाली के फ़ौरन बाद अपने अश्वमेध पर निकल पड़ेंगे। कोई सोच रहा हो कि महा-गठबंधन को ले कर अखिलेश का मन भी उतना ही फुदक रहा होगा, जितना शायद मुलायम-अमर का, तो वह गच्चा खाएगा। ऐसे में शरद यादव कितने बड़े विध्नहर्ता बन पाएंगे, कौन जाने! अगर बाल-गोपाल को रामगोपाल के लाड़ ने अंततः बे-घर करा ही दिया तो भाजपा-विरोधी आंगन और भी टेढ़ा हो जाएगा।
इसलिए कांग्रेस को तो अभी भी कुछ वक़्त अपना दामन बचा कर ही चलना होगा। यह तथ्य इतनी आसानी से नहीं भुलाया जा सकता है कि पहले कांग्रेस विरोध के नाम पर जो जनता-परिवार बना करता था, आजकल वही भाजपा-विरोध के नाम पर बनने लगा है। इस परिवार के बड़े-बूढ़े भाजपा को नापंसद भले करते होंगे, लेकिन वे कांग्रेस को भी कोई पसंद नहीं करते हैं। वे सिर्फ़ तब तक कांग्रेस के साथ गरबा खेलते हैं, जब तक संघ परिवार की लाठी उन पर तनी रहती है। बाद में उन्हें कांग्रेस भी अपने लिए उतना ही बड़ा शत्रु दिखाई देती है, जितनी भाजपा। रही बात इनकी नौजवान पीढ़ी की तो उन्हें भाजपा से कोई गुरेज़ है ही नहीं। ज़मीनी सच्चाई ने उन्हें सिर्फ़ कांग्रेस से परहेज़ करना सिखाया है। तीसरी शक्ति आख़िरकार तीसरी शक्ति ही है। बड़ा कांटा निकालने के लिए जब वह कांग्रेस को ग़ुलदस्ता देती है तो किसी को यह ख़ुशफ़हमी नहीं होनी चाहिए कि वह कांग्रेस को कांटा नहीं, फूल समझने लगी है।
उत्तर प्रदेश का सवाल कम अहम नहीं है। लेकिन कांग्रेस के लिए उससे भी ज़्यादा अहमियत 2019 की है। उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों से कांग्रेस की सेहत का सीधा संबंध है, लेकिन अपने दीर्घकालीन स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी बूटियों का चयन भी उसे बहुत सोच-समझ कर इसी समय करना है। चार दिनों की चांदनी के बजाय कांग्रेस को चार दशक के उजाले पर ध्यान देने की ज़रूरत है। देश भर में अब तक के चुनावी गठबंधनों से कांग्रेस को नुकसान और दूसरों को फ़ायदा हुआ है। कांग्रेस की ज़मीन हथिया कर कइयों के राज-प्रासाद बन गए। भाजपा को परे रखने के यज्ञ में कांग्रेस तो अपनी आहुति डालती गई और पुण्य बाकी सब बांट ले गए। इसलिए इस बार गठबंधन की महा-राजनीति का हिस्सेदार बनते वक़्त कांग्रेस को अपना हिस्सा ठीक से तय करना होगा। कबीलावादी सियासत और विचारधारा आधारित राजनीति दो अलग-अलग धाराएं हैं। सामाजिक प्रदूशण को बढ़ावा देने वाली किसी धारा से निपटने के लिए इन दो धाराओं का मिलन होता भी हो तो वह मौजूदा आंकड़ा-बल देख कर नहीं, दूरगामी संभावनाओं के आधार पर होना चाहिए। क्योंकि आज की परिस्थितियां कुछ भी हों, कांग्रेस की अखिल भारतीय उपस्थिति तेल से भीगी वह बाती है, जो एक चिनगारी पाते ही फिर रोशन हो उठेगी।
बेहूदा राजनीति के ताजा दृश्यों से रू-ब-रू होने के बाद भी अगर सियासती संसार में बुनियादी मसलों पर विमर्श के बजाय तात्कालिक फ़ायदों की तराजू के पलड़ों पर ही निगाह लगी रहेगी तो उत्तर प्रदेश के चुनावों में जीत-हार किसी की भी हो, जनतंत्र की तो हार ही होगी। ऐसा न होने देने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी कांग्रेस पर है। क्योंकि लोकतंत्र की मेड़ पर उग आए सियासी कबीले जब लुप्त हो जाएंगे, कांग्रेस तो तब भी मौजूद रहेगी। अतीत में अपनी किसी संगत की वजह से भविष्य में शर्मिंदगी न उठानी पड़े, इसे तो आज ही सुनिश्चित करना होगा। राजनीति की दैनिक मजबूरियां इस काम को मुश्क़िल बना देती हैं, लेकिन लमहों की ख़ताओं से सदियों को मिली सज़ाओं के क़िस्से हमने कम तो नहीं सुने हैं। आख़िर यह कहानी कब तक दोहराई जा सकती है? इसलिए कांग्रेस के शिखर नेतृत्व को यह तस्दीक करनी होगी कि जिन हाथों को वे हाथ समझ कर पकड़ रहे हैं, वे महज दस्ताने साबित न हो जाएं!
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