दो महीने बाद, मार्च के दूसरे शनिवार को, जब हम होलिका-दहन कर रहे होंगे, तब पांच विधानसभाओं के चुनाव नतीजों की नई फ़सल भी हमारे हाथों में होगी। सो, आने वाले दिन इन सवालों की दंड-बैठक के हैं कि नरेंद्रभाई दामोदर दास मोदी और अमितभाई अनिलचंद्र शाह की जुगल-जोड़ी की पिचकारियों से निकला रंग भारतीय जनता पार्टी के चेहरे को और गुलाबी बनाएगा या उसकी आज की चमक भी जाती रहेगी? पांच राज्यों, और ख़ासकर उत्तर प्रदेश, में भाजपा का क्या होगा? क्या ये चुनाव नोट-बंदी के फ़ैसले पर रायशुमारी माने जाने चाहिए? और, क्या इन चुनावों के नतीजे अपने प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल का आधा सफ़र पूरा कर रहे नरेंद्रभाई की लोकप्रियता में उठाव-गिरावट का पैमाना भी तय करेंगे?
नोट-बंदी की मोदी-तरंग इस वक़्त भाजपा की साख से सीधी-सीधी जुड़ी हुई है। इसलिए देश की चूलें हिला देने वाले इस फ़ैसले का पांच राज्यों के चुनाव पर असर कैसे नहीं पड़ेगा? समुदायवाद, जातिवाद, बिरादरीवाद और गलीज़ मतलबपरस्ती से जुड़े निजी मसले मतदान को कितना ही प्रभावित करें, नोट-बंदी का हाहाकार पूरी तरह दफ़न होने से तो रहा! बावजूद इसके कि पूरी सरकार और भाजपा का सांगठनिक कुनबा मन-बेमन से नरेंद्रभाई को क्रांतिदूत बताने पर तुला हुआ है, दो महीने से अपनी एक-एक पाई के इंतज़ार में कतारों में खड़े आम लोगों के दिलो-दिमाग में यह बात घर कर गई है कि नोट-बंदी की तरकश का एक भी तीर अपने निशाने पर नहीं लगा है। ऐसे-ऐसे अहम निशानों की चूकने वाले तीरंदाज़ को क्या मतदाता ऐसे ही माफ़ कर देंगे?
गोआ और मणिपुर यूं भले ही छोटे राज्य हैं, मगर दोनों की भौगोलिक-सामाजिक स्थिति उन्हें इन चुनावों में विशेष भूमिका निभाने का मौक़ा दे रही हैं। 40 निर्वाचन क्षेत्रों वाले गोआ में भाजपा की सरकार है और वहां के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पार्सेकर विवादों के घोड़े पर सवार रहने में शान महसूस करते हैं। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर जब गोआ में भाजपा की ताक़त रहे होंगे, तब रहे होंगे। अब तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुभाष वेलिंगकर तक की बग़ावत का स्वाद पर्रिकर और उनकी भाजपा चख चुकी है। इसके अलावा जुआघरों और खनन से लेकर भाषा के सवालों तक से जूझ रहे गोआ की भाजपा को अपनी मौजूदा 21 सीटें बैठे-बिठाए तो मिलने वाली हैं नहीं। यूं भी वह अब तक एक सीट के तकनीकी बहुमत के बूते गोआ में राज कर रही है। कांग्रेस के 9 समेत बाकी 10 और विधायकों का विलोम-गीत इस चुनाव में गोआ के राजनीतिक संगीत को उलट-दिशा में मोड़ने का माद्दा रखता है।
60 सीटों वाले मणिपुर में कांग्रेस की सरकार है और उसके 49 विधायक हैं। ज़मीन पर उनकी जमावट का अंदाज़ इससे ही लगा लीजिए कि मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी पिछले पंद्रह साल से अपनी कुर्सी पर जमे हुए हैं। भाजपा के पास तो मणिपुर में नाम के लिए सिर्फ़ एक विधायक है। पूर्वोत्तर भारत को हर हाल में अपनी मुट्ठी में करने के लिए भाजपा की योजना में हर तरह के साम-दाम-दंड-भेद की खुली झलक पिछले ढाई बरस से सब देख रहे हैं, मगर भाजपा की किसी भी मोहिनी-मुद्रा पर मणिपुर इस चुनाव में तो रीझता नहीं दीखता।
पंजाब की सियासी-हवा के संकेत शिरोमणि अकाली दल के खिलाफ़ अब तक़रीबन साफ़ हो गए हैं। 117 सीटों वाली विधानसभा में पिछली बार भी अकाली दल को बहुमत से सिर्फ़ एक ही सीट ज़्यादा मिली थीं। भाजपा के 12 विधायक चुन कर न आ गए होते तो प्रकाश सिंह बादल को ये पांच बरस निकालने भी भारी पड़ जाते। नशे के कारोबार से लेकर यमुना-सतलज नहर तक के मसलों ने सत्ता-विरोधी लहर को और परवान चढ़ा दिया है। इसलिए पंजाब के देहाती इलाक़ों में अकाली-लाठियों के मंडरा रहे बादलों के बावजूद इस बार मतदाताओं को वैकल्पिक हाथों में जाने से रोकना मुमक़िन नहीं होगा। आम आदमी पार्टी अपने शुरुआती हो-हल्ले के बाद अब चुनावी-दौड़ में बेहद पिछड़ गई है। इसका पूरा फ़ायदा कप्तान अमरिंदर सिंह की कांग्रेस को मिल रहा है। सो, संभावना यही है कि पंजाब अपने कप्तान को नतीजों का प्लेटिनम-उपहार दे दे। चुनाव नतीजों के दिन, 11 मार्च को, अमरिंदर सिंह 75 साल के हो जाएंगे।
उत्तराखंड की 70 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के बीच यू तो ‘डाल-डाल, पात-पात’ वाला रिश्ता है। वहां कांग्रेस के 28 और भाजपा के 25 विधायक हैं। लेकिन पिछले दिनों की सियासी उठापटक के दौरान भाजपा की आंख में तीतर का ऐसा बाल लोगों को नज़र आया कि वे भीतर तक सुलगे बैठे हैं। मुख्यमंत्री हरीश रावत को जांच एजेंसियों के ज़रिए ज़लील होते देख कर भी उत्तराखंड के मतदाता उद्वेलित हैं। बेरोज़गारी और बर्बाद हो रहे पर्यटन को नोट-बंदी ने और गंभीर बना दिया है। ऐसे में पहाड़ों की थकान से उबरना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा।
लेकिन सबसे बड़ी तलवार तो भाजपा के सिर पर उत्तर प्रदेश में लटकी है। 403 सीटों वाली विधानसभा में पिछले चुनावों में भाजपा को भले ही 41 सीटें मिली थीं, लेकिन 2014 में लोकसभा के चुनावों के दौरान 80 में से 71 सीटें जीतने से इस विधानसभा चुनाव में उस के लिए जो स्पर्श-रेखा तय हो गई है, उसे तो वह तभी छू सकती है, जब कोई आसमानी-सुल्तानी हो जाए। समाजवादी कुनबे के पिता-पुत्र खेमों ने अपनी फ़जीहत कराने में कोई कमी नहीं रखी, लेकिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कोयले की इस कोठरी से फिर भी काफी धवल वस्त्रों में बाहर निकलते हम देख रहे हैं। इसलिए समाजवादी पार्टी की सीटें 229 से घट कर कोई 29 तो होने वाली हैं नहीं। मायावती भी बहुजन समाज पार्टी की 80 सीटों में कुछ जोड़ती ही दिखाई दे रही हैं। कांग्रेस को उसकी मौजूदा 28 से ज़्यादा सीटें न देने वालों की इच्छा अगर पूरी भी हो जाए तो भी आज का गुणा-भाग उत्तर प्रदेश की सरकार भाजपा की गोद में तो डाल नहीं रहा। ऐसे में सपा के अखिलेश, कांग्रेस के राहुल गांधी और राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी को एक मंच से हाथ हिलाते देखने पर नोट-बंदी से बिलबिलाए मतदाता भाजपा के साथ पता नहीं क्या करें! यूं भी 18 फ़ीसदी मुस्लिम, 21 प्रतिशत दलित और 41 प्रतिशत पिछड़ी जातियों वाले उत्तर प्रदेश में नरेंद्रभाई और अमितभाई महज हाथ मटकाते हुए तो भाजपा को सिंहासन पर नही पहुंचा सकते हैं।
जब हिरण्यकश्यप पूरी पृथ्वी के राजा हो गए तो उन्होंने फ़रमान जारी किया कि उनके राज में सिर्फ़ उन्हीं की पूजा होगी, किसी और की नहीं। लेकिन उनका पुत्र प्रहलाद भी कम ज़िद्दी नहीं था। उसने हुक़्म मानने से इनकार कर दिया और भगवान विष्णु की पूजा करने लगा। होलिका-दहन की घटना इसी कथा का अंतिम पन्ना है, जिसकी याद हम सदियों से हर साल करते हैं। नोट-बंदी की ओखली में जिस भारतमाता का सिर आज तक मूसलें खा रहा है, अनिश्चितता और अविश्वास के थपेड़ों ने जिसे फ़िलहाल कहीं का नहीं छोड़ा है और भावी मुसीबतों के टूटते आसमान की आशंकाओं से जिस मुल्क़ की रूह कांप रही है, अगर फरवरी-मार्च की मशक्क़त के बाद होलिका-दहन के दिन हमउ से प्रहलाद की तरह अग्नि से जीवित बाहर निकाल कर नहीं ला सके तो हमारे फूटे कर्मों पर कोई और तो आ कर रोने से रहा!
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