आज भी जो लोग यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी को तो पांच राज्यों के इन विधानसभा चुनावों में असम के बाहर महज पांच ही सीटें मिली हैं, वे कांग्रेस के दोस्त नहीं हैं। जो बुक्का फाड़ रहे हैं कि कांग्रेस को तो पांचों राज्यों में 139 सीटों पर जीत मिली है और भाजपा को तो सिर्फ़ 65 सीटें ही मिली हैं, वे भी कांग्रेस के शुभचिंतक नहीं हैं। इन नतीजों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपनी पार्टी के मुख्यालय जा कर कही गई यह बात भले ही बड़बोलापन हो कि इन चुनाव नतीजों से भाजपा को अब अखिल भारतीय स्वीकार्यता मिल गई है, लेकिन जो लोग आंकड़ों की बाज़ीगरी से यह साबित करना चाहते हैं कि कांग्रेस पर कोई खंरोच नहीं आई है, वे भी मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं।
इबारत तो दीवार पर साफ लिखी हुई है। कांग्रेस अंधी खाई के कगार पर खड़ी है। अगर अब भी सोनिया और राहुल गांधी ने कांग्रेस को यहां तक पहुंचा देने वाली अमरबेलों से मुक्त करने का क़दम नहीं उठाया तो देव-लोक में बैठी कांग्रेसी-पूर्वजों की आत्माएं भी प्रभावहीन हो जाएंगी। 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालने के बाद सोनिया की बेहिसाब मेहनत ने कांग्रेस को 2004 में केंद्र की सत्ता दिलाई। 2009 में भी कांग्रेसी तो सोनिया को यही समझा रहे थे कि बाज़ी अब हाथ से निकल गई है, लेकिन कांग्रेस ने दोबरा सरकार बनाई। आज भी संसद के भीतर और जंतर- मंतर पर सोनिया ही सबसे आगे दिखाई देती हैं।
राहुल ने भी अपना पसीना बहाने में कोई कोताही नहीं की है। हड़बड़ी में कुछ ऐसे प्रयोग उन्होंने कर डाले, जिनका समय अभी आया नहीं था। लेकिन पिछले एक दशक में चुनावों का सामना कर रहे राज्यों में डगर-डगर घूमने से ले कर गांवों में दलितों की झोंपड़ियों में रात बिताने तक उन्होंने सब-कुछ तो किया। भट्टा-परसौल के किसानों, नियमगिरि के आदिवासियों, रेलों के कुलियों, विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों और व्यापार जगत के पुरोधाओं में से कौन ऐसा है, जो सियासत में राहुल की नेकनीयती और सदाशयता का कायल नहीं रहा? हर कोई इतने बरस से उन्हें हर जगह पहुंचने की बेताबी लिए घूमते ही देख रहा है।
फिर क्या वजह है कि कांग्रेस आज अपनी हताशा के सबसे ग़मगीन दौर से गुज़र रही है? इससे पहले कांग्रेसियों में ऐसी निराशा मैं ने चार दशक में कभी नहीं देखी। 1975-77 के आपातकाल के दिनों में मैं उज्जैन विश्वविद्यालय छात्र संघ का महासचिव था। ‘77 में जब कांग्रेस का सफाया हो गया, तब भी कांग्रेसियों में ऐसी मायूसी नहीं थी। पत्रकार के नाते मैं ने कांग्रेस को दशकों कवर किया है और देखा कि 1996-98 के दौर में भी कांग्रेसी ऐसे उदास नहीं थे। और-तो- और, जब दो बरस पहले 2014 में नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को भाजपा के पहियों तले ऐसा कुचल दिया कि वह लोकसभा की 44 सीटों पर अटक गई, तब भी कांग्रेस में ना-उम्मीदी का ऐसा अंधेरा नहीं छाया था। लेकिन पांच राज्यों के ताजा चुनावों के बाद कांग्रेसियों की निराशा का आलम सचमुच चिंता की बात है।
किसी चमत्कार के इंतज़ार में बैठे रहने के दिन अब गए। यह सोच कर चलने के दिन भी अब लदते जा रहे हैं कि भारत अगर एक कंप्यूटर है तो कांग्रेस उसका डिफॉल्ट प्रोग्राम है। भाजपा से निराश मतदाता अब विकल्प के तौर पर कांग्रेस को नहीं, दूसरों को देखने लगा है। 2012 के बाद हुए क़रीब 30 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा को मिल कर जितनी सीटें मिली हैं, उससे ज़्यादा “दूसरों” को मिली हैं। कांग्रेस ने 871 जीतीं, भाजपा ने 1051 और दूसरे राजनीतिक दलों ने 2195 सीटें जीतीं। इसलिए स्वाधीनता आंदोलन से उपजी और स्वतंत्र भारत को दुनिया में मौजूदा स्थान दिलाने वाली कांग्रेस को एक डिफॉल्ट-प्रतीक्षालय के हवाले कर देने से ज़्यादा अन्याय उसके साथ और क्या हो सकता है?
इसलिए कांग्रेस के कुछ बड़े नेता शल्य-चिकित्सा करने की मांग उठा रहे हैं। लेकिन कुछ उतने ही बड़े नेता मानते हैं कि ऐसी बड़ी शल्य-चिकित्सा की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं कहता हूं कि ज़रूरत है। इसलिए कि अगर कांग्रेस अपने कंधों का बोझ बढ़ा रहे उन लोगों को सियासी कूड़ेदान के हवाले अब भी नहीं करेगी तो कब करेगी, जिन्होंने बाहर से आ कर पिछले एकाध दशक में संगठन पर कब्ज़्ाा जमा लिया? बाहर से आए वे लोग, जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री देखना अपने जीवन का सपना मानते थे, आज कहां हैं? वे कौन हैं, जो कांग्रेसी-विचार से दूर-दूर तक नाता न रखने वालों को पार्टी की कार्यसमिति में शामिल कराने की घेरेबंदी किया करते थे? घर जब बाहर के लोग चलाने लगें और अपने भी उन्हीं की छत पर रात बिताने लगें तो जो होता है, वही तो कांग्रेस के साथ हुआ है। दिन भर कांग्रेसी आलाकमान के सामने चुपड़ी बातें परासेने औ सूर्यास्त के बाद स्पर्धी राजनीतिक दलों की रंस-रंगी मित्र-मंडलियों में सोनिया-राहुल को कोसने वालों से निज़ात पाने के लिए शल्य-चिकित्सा तो अब होनी ही चाहिए।
आज के दौर में कुछ लोगों को कांग्रेस ग़रीब की जोरू लगने लगी है। सो, बौद्धिक लेखों और सियासी बयानों के ज़रिए सलाह दी जा रही है कि कांग्रेस छोड़ कर गए दिग्गजों से वापस आने का आग्रह किया जाना चाहिए। शरद पवार लौट आएं, ममता बनर्जी मायके आ जाएं और सुबह के भूले जगन रेड्डी शाम को 24, अकबर रोड पहुंच जाएं तो इससे बेहतर क्या हो सकता है? आख़िर किसी-न-किसी वक़्त पवार, ममता और जगन के पिता ने कांग्रेस को सींचा है। लेकिन आज अगर वे आएंगे तो क्यों आएंगे? अपना बोरिया-बिस्तर समेटने की ललक उनमें क्यों उठेगी? महाराष्ट्र में पवार कोई पटिए पर तो बैठे नहीं हैं। बंगाल में ममता सारे मकड़जाल को काट कर दुगने जोश से राज-सिंहासन पह पहुंच गई हैं। जगन तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में बहुत मज़बूत नही ंतो ऐसे कमज़ोर भी नहीं हो गए हैं कि आगे के लिए कुछ दीखता ही न हो।
लेकिन हां, एक ख़्वाब की तासीर उन्हें कांग्रेस की तरफ़ खींच सकती है। बावजूद इसके क कांग्रेस मुसीबत में है, हर कोई जानता है कि वह एक अखिल भारतीय ब्रांड है। यह भी सबको लगता है कि 2019 के चुनावों में कांग्रेस 44 पर तो सिमटने से रही। बुरी-से-बुरी हालत में वह सौ पार जाएगी। ऐसे में अगर भाजपा-रहित किसी गठबंधन के लिए केंद्र में सरकार बनाने का छींका टूटा तो प्रधानमंत्री बनने के लिए किसी को भी कांग्रेस की तरफ़ देखना होगा। आज लोकसभा में
ममता की 34 सीटें हैं और पवार की छह। 2019 में वे इतनी तो हो नहीं जाएंगी कि भाजपा-रहित गठबंधन में बाकी सबको परे कर इनमें से किसी की भी कोई कारगर भूमिका बन पाए। कांग्रेस में वापस आ कर संगठन के भीतर की सियासत पर कब्ज़्ाा कर के जीवन भर का अपना सपना पूरा होने की एक उम्मीद तो कम-से-कम बनती ही है। जो लोग राहुल को यह सलाह दे-दे कर यहां तक ले आए कि उन्हें तो प्रधानमंत्री की गद्दी तभी संभालनी चाहिए, जब कांग्रेस की अकेले सरकार बने, वे मौक़ा आने पर 2019 में जाजम खुद के लिए बिछाएंगे या राहुल के लिए?
साख बनाने में सवा सौ साल लग जाते हैं, लेकिन उसे गंवाने में सवा सौ घंटे से ज़्यादा कभी नहीं लगते। इसलिए इस बार अपनी पार्टी को तराशने में सोनिया-राहुल के हाथ अगर कांपे तो कांग्रेस की साढ़े-साती शुरू हो जाएगी। इस सुरंग में प्रवेश के बाद तो फिर रोशनी की पहली किरण साढ़े सात साल बाद 2024 में ही नज़र आएगी। इस बात का तो मुझे पूरा विश्वास है कि मोदी तो भारत को कभी कांग्रेस मुक्त नहीं कर पाएंगे। लेकिन अब सोनिया रत्ती भर भी चूकीं तो घर के भेदी कांग्रेस ढहा देंगे।
लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी हैं।
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