पंकज शर्मा
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल गुस्से में हैं। उन्हें भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी पर गुस्सा आ रहा है। उन्हें कांग्रेस, सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर भी गुस्सा आ रहा है। हमेशा झल्लाहट की चरम-मुद्रा में रहने वाले केजरीवाल अपने इक्कीस विधायकों की सदस्यता जाने के डर से हाथ-पैर पीट रहे हैं। पिछले साल 13 मार्च को संसदीय सचिवों की थोक नियुक्ति करते वक़्त अगर केजरीवाल ने किसी से सलाह ले ली होती तो उन्हें तभी मालूम हो जाता कि ऐसा कर के वे विधायकों को लाभ का पद दे रहे हैं। पिछली तारीख़ से लागू कर संसदीय सचिव को लाभ के पद वाले दायरे से बाहर करने वाले दिल्ली विधानसभा के प्रस्ताव को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने रद्द कर दिया है। निर्वाचन आयोग भी विधायकों की सदस्यता समाप्त करने के लिए 1997 में बनाए गए क़ानून और उसमें समय-समय पर हुए संशोधनों का अध्ययन करने के बाद इस नतीज़े पर पहुंच चुका है कि संसदीय सचिवों की नियुक्ति गै़र-क़ानूनी थी।
सो, केजरीवाल की सियासी आत्मा कलप रही है और वे लोकतंत्र के दो बड़े नासपीटों–भाजपा और कांग्रेस–को उनके दोहरेपन के लिए कोस रहे हैं। मैं शुरू से ही केजरीवाल की बुद्धिमत्ता को शाश्वत नमन के लायक़ मानता रहा हूं। इसलिए उनके ताज़ा रुदन के इन दिनों में मुझे ठीक दस बरस पहले 2006 के मार्च महीने की याद आ रही है। सोनिया गांधी तब राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष थीं। दो साल पहले ही हुए आम चुनावों में वे रायबरेली से लोकसभा में चुन कर आई थीं। संसद के बजट सत्र को भाजपा ने यह कह कर सिर पर उठा लिया था कि सांसद होने के साथ वे लाभ के पद पर भी बैठी हैं, इसलिए लोकसभा की उनकी सदस्यता समाप्त की जाए। तेलुगु देशम जैसे दल इस मामले में भाजपा के साथ थे। लेकिन वाम दलों सहित कुछ दूसरी पार्टियों का कहना था कि क़ानून में इस मसले को ले कर पूरी स्पष्टता नहीं है और सोनिया ने कुछ भी ग़लत नहीं किया है।
कांग्रेस की राजनीति में ज़िम्मेदार पदों पर बैठे दिग्गज वकीलों ने अपनी दलीलों से माहौल बनाना शुरू कर दिया था कि सलाहकार परिषद के अध्यक्ष की कुर्सी लाभ के पद के दायरे में नहीं आती है। लेकिन सोनिया इन क़ानूनचियों की कलाबाज़ियों से खिन्न थीं। उनका सवाल था कि आख़िर इस पद का सृजन करते वक़्त ही यह सावधानी क्यों नहीं बरती गई कि आज जैसी नौबत न आती? लल्लो-चप्पो में लगे कई वकील-नेता उनकी डांट खा चुके थे। संसद में हो रहे हंगामे के बीच 2006 में मार्च के तीसरे सप्ताह के बुधवार की शाम सोनिया ने अपने घर पर कांग्रेस के चंद बड़े नेताओं को बुलाया और साफ़ कर दिया कि वे लोकसभा से इस्तीफ़ा दे कर दोबारा चुनाव लड़ेंगी। अगले दिन वे लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के घर गईं और अपना इस्तीफ़ा दे आईं। सलाहकार परिषद के मुखिया का पद भी उन्होंने छोड़ दिया। रायबरेली में 8 मई को उप-चुनाव हुआ। सोनिया को कुल मतदान के 80 फ़ीसदी से भी ज़्यादा वोट मिले। दो बरस पहले 2004 के चुनाव में उन्हें 59 प्रतिशत वोट मिले थे।
कांग्रेस के दोहरेपन की बात करने वाले केजरीवाल अगर दस साल पुरानी बातें भी ठीक से याद नहीं रख पा रहे हैं तो कोई क्या करे? मुझे तो लगता है कि वे अपने मौजूदा संकट को एक बड़ी राजनीतिक जीत में बदलने का मौक़ा बुरी तरह चूक गए हैं। पहले ही दिन अगर उन्होंने अपने संसदीय सचिवों से इस्तीफ़े दिला कर उपचुनाव में जाने का ऐलान कर दिया होता तो आज उन्हें भाजपा पर अपने तर्कों की चाबुक बरसाते देख लोग तालियां बजा रहे होते। लेकिन अब तो अपने (कु) तर्कों से वे खुद की फ़जीहत ही करा रहे हैं। पिछले कुछ हफ़्तों में दिखी उनकी कुर्सी-चिपकू प्रवृत्ति के बाद मौजूदा संसदीय सचिवों में से एक चौथाई भी अगर मत-कुरुक्षेत्र से सही-सलामत वापस आ जाएं तो गनीमत होगी।
एक नई राज-व्यवस्था की स्थापना के वादे की लहर पर सवार हो कर केजरीवाल ने दिल्ली में प्रवेश किया था। लेकिन केजरीवाल-काल में राजधानी के आसमान का रंग तो कुछ ख़ास बदला नहीं। हां, केजरीवाल ज़रूर बहुत बदल गए हैं। इन वर्षों में मैं ने एक आंदोलनकारी को पहले से ज़्यादा अहंकारी, स्व-केंद्रित, मनमाना, अराजक, ज़िद्दी और ज़रूरत से ज़्यादा प्रतिपक्षी में तब्दील होते देखा है। केजरीवाल की आक्रामक अदा कब गाली-गलौज के दहलीज़ पर पहुंच जाती है, उन्हें पता ही नहीं चलता है। लोगों की निग़ाह में वे कितने बेतुके और मीन-मेखी होते जा रहे हैं, यह उन्हें कोई मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास या आशुतोष भी तभी तो बता पाएगा, जब वे ख़ुद भी कुछ देखने को तैयार हों!
केजरीवाल के बहसवीरों से टेलीविजन के चैनलों पर मेरा भी पाला पड़ता रहा है। अपनी आवाज़ से ऐसा लगाव रखने वाले मैं ने किसी और राजनीतिक दल में नहीं देखे। अपनी काम-चलाऊ बुद्धि के बूते इतना बौद्धिक आतंक फैलाने की महारत रखने वाले भी मैं ने कहीं और नहीं देखे। केजरीवाल और उनके बग़लगीर अपने अभ्युदय पर खुद इतने रीझे हुए हैं कि उन्हें आम आदमी पार्टी की सरपट नीचे आ रही लोकप्रियता का अहसास ही नहीं हो रहा। मुझे तो अब शक़ होता है कि जब केजरीवाल अन्ना हजारे के कंधों पर चढ़ कर अपनी सियासी महत्वाकांक्षाओं को आकार दे रहे थे, तब उनके विचारों की शुद्धता सौ-टंच थी भी या नहीं? अगर ऐसा था तो आज एक ऐसा केजरीवाल हम क्यों देख रहे हैं, जिसे अपने अहम की मालिश के लिए इतने दरबारियों की ज़रूरत पड़ती है?
राजनीतिक नेतृत्व की शैलियों में से एक है ”सेवक-नेता“ की। इसमें लोगों को यह अहसास दिलाया जाता है कि नेता सब-कुछ आम-लोगों और वंचित समुदायों की भलाई के लिए कर रहा है। वह उन्हीं में से एक है और शोषण के ख़िलाफ़ लड़ रहा है। केजरीवाल ने यही शैली अपनाई। मजबूरी में स्वीकार कर ली गई असहायता के भारतीय भाव ने केजरीवाल को नायकत्व देने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की। असहायता का यह भाव अपने अधिकारों के लिए संघर्ष में बार-बार पराजय पाने के बाद व्यक्ति के मन में अंततः स्थाई रूप ले लेता है और लोग अपने को परिस्थितियों पर छोड़ देते हैं। इस देशव्यापी रोग के बड़ी तादाद में शिकार लोगों को सियासत की केजरीवाल-शैली में उम्मीद की तेज़ रोशनी दिखाई दी। आम लोगों में अपनी असहायता के भाव से उबरने का अहसास जगा और उन्होंने केजरीवाल में एक ऐसे योद्धा की झलक दिखी, जो उन्हें लाचारी से निज़ात दिला कर सशक्त बना सकता था। इससे दिल्ली में एक सैलाब-सा आया। लेकिन गुज़रे वर्षों के अनुभवों की हवा इस भाव को अपने साथ कब का ले उड़ी है।
सद्विचारों और स्पष्टता के जिस घोड़े की पीठ पर अपनी राजनीति के शुरुआती दिनों में केजरीवाल सवार थे, आज उस घोड़े ने पता नहीं किस कुएं की भांग पी ली है कि दिशाहीन हो कर बौराया घूम रहा है! केजरीवाल का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता इतनी जल्दी रिस गई और उनकी पार्टी के तमाम दिशा-सूचक यंत्र सियासी बियाबान में बेअसर होते जा रहे हैं! केजरीवाल को समझना होगा कि लोग अपनी अगुआई करने वाले में पराक्रम के गुण की तो क़द्र करते हैं, लेकिन आवेश और बेसब्री उन्हें पसंद नहीं आती। इसीलिए राम भारतीय समाज में परशुराम से बड़े नायक हैं।
लेखक न्यूज़–व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
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