जनसेवा की ऐसी गलाघोंटू उत्कट ललक रखने वाला कुनबा जब तक उत्तर प्रदेश में मौजूद है, किसी खतरे की क्या मजाल कि लोकतंत्र पर मंडरा जाए! 77 साल के मुलायम सिंह यादव से ले कर 43 साल के उनके मुख्यमंत्री बेटे अखिलेश और 70 साल के रामगोपाल यादव से ले कर 61 साल के शिवपाल यादव तक जिस शिद्दत से अपने राज्य की प्रजा के दुख-दर्द दूर करने में ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ हुए जा रहे हैं, उसे देख कर मैं तो भीतर तक गदगद हूं। ऐसे रहनुमाओं के होते भला समाजवाद के बुनियादी उसूलों पर कभी कोई आंच आ सकती है? पिछले 49 बरस से स्वर्ग में पछुआ बयार की थपकियों में कहीं सो रही राम मनोहर लोहिया की आत्मा इस हफ़्ते चली लू के थपेड़ों से ऐसी बिलबिला रही होगी कि वश चलता तो लखनऊ पहुंच कर पूरे मुलायम खानदान को कतार में खड़ा कर कोड़े बरसाती।
लोहिया पिठड़े नहीं थे। वे वैश्य थे। वैश्य वर्ग में जन्म ले कर उन्होंने समाजवाद का मर्म जाना और मन से अपरिग्रही हो गए। लेकिन जो पिछड़े वर्ग में जन्मे, वे लोहिया के समाजवादी सिद्धांतों की माला जपते-जपते सियासती-वैश्य बन गए। एक आंख बंद कर समाजवाद के श्लोक सुना रहे लोगों की दूसरी आंख कहां लगी थी, अगर लोहिया जानते तो अपने समाजवाद को कब का तिरोहित कर चुके होते। लोहिया के समाजवाद की सारी पुण्याई सरकारी ठेकों, ज़मीनों के खेल और नदियों की रेत से लिथड़े एक कुनबे की सियासी महत्वाकांक्षाओं के बदबूदार नाले में बह रही है। निर्लज्ज और ढीठ राजनीति का यह रूप देखना ही उत्तर प्रदेश की जनता के भाग्य में लिखा था।
सुघड़ सिंह यादव के बेटे मुलायम इतने सुघड़ निकले कि उन्होंने अपने आंगन में रोपे समाजवादी पेड़ की हर शाख पर अपने घर का एक-एक सुघड़ चेहरा बैठा दिया। आज उनके कुनबे के बीस लोग इस पेड़ की बीस डालियों पर अपनी-अपनी मर्ज़ी की धूनी रमाए जमे हुए हैं। मुलायम-कुनबे के पांच लोग लोकसभा में हैं। एक राज्यसभा में है। एक उत्तर प्रदेश की विधानसभा में है। दो विधान परिषद में हैं। बाकी ग्यारह पंचायत से ले कर ज़िलों तक की राजनीति में ओहदा संभाले बैठे हैं। 1967 लोहिया की संसार से विदाई और मुलायम सिंह के विधानसभा में प्रवेश का साल था। उसके बाद से मुलायम ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह भी नहीं देखा कि लोहिया के मूल्य इस सफ़र में कहां छीजते गए और कैसे उनकी जनसेवी राजनीति लठमार गिरोह में सिमटती गई। तीन बार मुलायम मुख्यमंत्री रह लिए। देश के रक्षा मंत्री तक बन गए। अब एक ही हसरत बाक़ी रह गई है और वह है प्रधानमंत्री बनने की, जो इस जनम में पूरी करने के लिए वे पहलवानी के दिनों में सीखे हर दांव को अपनाए बिना अब भी नहीं मानेंगे।
मुलायम के बेटे अखिलेश सोलह बरस पहले जब कन्नौज से पहली बार लोकसभा में चुने गए थे तो महज 27 साल के थे। बिरले प्रतिभावनों को ही इतनी कम उम्र में देश की संसद में आने का मौक़ा मिलता है। तब से वे कुल तीन बार लोकसभा में चुने गए हैं। अपनी राजनीतिक क्षमताओं को ले कर अखिलेश की निश्चिंतता का आलम यह है कि 2009 में वे लोकसभा का चुनाव कन्नौज के साथ फ़िरोजाबाद से भी लड़े। दोनों जगह से जीत गए तो फ़िरोजाबाद सीट अपनी पत्नी डिंपल के लिए खाली कर दी। लेकिन डिंपल हार गईं। 2012 में डिंपल फिर खड़ी हुईं तो कुछ ऐसी महिमा हुई कि वे निर्विरोध जीतीं। लोकसभा का चुनाव निर्विरोध जीतने का सौभाग्य आज़ादी के बाद से तब तक सिर्फ़ 44 लोगों को मिला था। डिंपल 45वीं थीं और उनसे पहले 23 वर्षों में हुए चुनावों में कोई भी निर्विरोध जीत कर लोकसभा में नहीं पहुंचा था। 1989 के बाद यह ऐतिहासिक अवसर घुड़सवारी की शौकीन डिंपल को मिला।
भौतिक शास्त्र पढ़ाने वाले रामगोपाल और मुलायम की तरह पहलवानी करने की इच्छा रखने वाले शिवपाल ने समाजवादी सियासत को जो आयाम दिए हैं, वे अद्भुत हैं। आज मुलायम-कुनबे में चल रहे धोबिया पाट दांव-पेचों की बानगी इन्हीं के सौजन्य से आप देख रहे हैं। भौतिकी का कोई बुनियादी नियम अब रामगोपाल को याद नहीं रहा है और अखाड़े की बुनियादी मर्यादाओं के पालन में शिवपाल की भी कोई दिलचस्पी नहीं है। सो, मुलायम सिंह अपने किए का नतीजा कातर निग़ाहों से देख रहे हैं। उनके छोटे बेटे प्रतीक और बहू अपर्णा के मन में भी सियासत की नागफनी करवटें लेने लगी है और जिस दिन उनकी इच्छाएं रंग लाएंगी, लखनऊ के आसमान में पता नहीं कौन-से बादल मंडराएंगे!
मुलायम सिंह के आंगन में खिंच गई दीवारों के ताजा दृश्य देखने के बाद भी अगर कोई सोचे कि अब भी एक दिन ऐसा आएगा कि सब ठीक हो जाएगा तो ऐसी आस को मेरा नमन! बरसों से धीमी आंच पर पक रही बिखराव की हांडी अब इतनी खदक गई है कि उसका फूटना तय है। अगले तीन-चार महीनों में उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनावो की लोक-लाज ने इस उपसंहार को कुछ महीने आगे खिसका भी दिया तो अगले साल की शुरुआत में इधर वोटिंग मशीनें विधानसभा चुनाव नतीजों के आंकड़े उगल रही होंगी और उधर हमस ब मुलायम की रची मीनार से गिरती ईंटें गिन रहे होंगे।
लोहिया की विदाई की आधी सदी के बाद उनके समाजवाद की चिता में अग्नि देने के लिए इतिहास मुलायम को तो याद रखेगा ही, उनके भाइयों और बेटे का नाम भी कोयले से और गहरा लिखेगा। लोकतांत्रिक दुर्योग जब बड़ी भूमिकाओं की डोली छोटे कंधों पर रख देते हैं, तब जो होता है, उत्तर प्रदेश में वही हो रहा है। लेकिन यह सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की बात इसलिए नहीं है कि इस पूरी धींगामस्ती में एक स्थाई सिद्धांत और उसके पीछे के विचार की बखिया पूरी तरह उधड़ गई है। बाज़ार और पूंजी की हाय-तौबा से जूझ रहे किसी भी देश की भावी राजनीति के लिए ये संकेत सुखद नहीं हैं।
विचार-धाराएं पता नहीं कितने थकान भरे रास्तों से गुज़रने के बाद आकार लेती हैं। उन्हें सियासी खो-खो का खेल बनाने वालों का पाप तो किसी भी राष्ट्र-राज्य की पूरी सामाजिक व्यवस्था को ही झेलना पड़ता है। भारत इससे कैसे बच जाएगा? विचार-धारा की वसीयत पर हक़ हासिल करने के बजाय जब ख़ानदानी विरासत पर कब्ज़े की नीयत दिमाग़ पर हावी हो जाती है तो ईंट से ईंट ही तो बजती है। सवाल यह नहीं है कि समाजवादी पार्टी का भवन जिस दिन भरभरा कर गिरेगा, उस दिन बाकी किस-किस राजनीतिक दल के पल्ले क्या-क्या पड़ेगा? समाजवादी पार्टी जाए भाड़ में, मुलायम-शिवपाल और अखिलेश-रामगोपाल इतिहास के कूड़ेदान में कल जाते हों तो आज चले जाएं। लेकिन असली सवाल तो यह है कि वैचारिक संस्कारों के क्षरण की इस धूल में से कोई वे तिनके बीन कर सहेजेगा या नहीं, जिनके भरोसे समाजवाद का घोंसला किसी सियासी-शाख पर तो बचा रहे?
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