मैं उन लोगों में हूं, जिन्होंने एक ज़माने में मोबाशर जावद अकबर (एमजे) के किस्से सुन-सुन कर पत्रकारिता के संसार में क़दमताल शुरू की। अब से 37 साल पहले 1979 में जब टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप में बतौर ट्रेनी-जर्नलिस्ट मेरा चयन हुआ तो मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनस की इमारत की दूसरी मंज़िल पर बने प्रशिक्षण कक्ष की दीवारों पर जिन चेहरों की यादें अमिट अंदाज़ में चस्पा मैं ने देखीं, उनमें से एक एम. जे. अकबर का था। यह सोच कर कि आठ बरस पहले 1971 में अकबर भी ट्रेनी-जर्नलिस्ट के तौर पर इसी क्लास रूम में बैठा करते थे, हम लोगों के तो पैर ही ज़मीन पर नहीं टिकते थे। राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर की छुअन से थिरकती उमंगों को अकबर और सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी) के क़िस्सों ने ऐसा परवान चढ़ा दिया था कि मुंबई में पैरों के छाले कभी महसूस ही नहीं हुए।
जब अकबर और एसपी कोलकाता के आनंद बाज़ार समूह का ‘संडे’और ‘रविवार’ निकाल रहे थे तो अंग्रेज़ी-हिंदी का शायद ही कोई ऐसा पत्रकार रहा हो, जिसके मन में इन पत्रिकाओं से जुड़ने की ललक न उठी हो। अकबर के संपादन में निकले हर प्रकाशन पर उनके नाम की अक्षरशः छाप हुआ करती थी। सकारात्मक ख़बरों का ऐलान करने वाले को मोबाशर कहा जाता है और जावद का मतलब होता है एकदम खुले दिमाग़ वाला। अकबर की पत्रकारिता में ये दो तत्व मोटे तौर पर हमेशा मौजूद रहे। जिन्होंने अकबर की ‘नेहरू: द मेकिंग ऑफ इंडिया, ‘रॉयट आफ्टर रॉयट, ‘इंडिया: द सीज विदिन’, ‘द शेड ऑफ स्वॉर्ड्स’ या ‘ब्लड ब्रदर्स’ के पन्ने पलटे हैं, वे अकबर की क़लम के क़ायल हुए बिना रह ही नहीं सकते। इसलिए बावजूद इसके कि अकबर का बही-खाता कई शिखरों और घाटियों के ज़िक्र से भरा है, मैं लेखक-पत्रकार अकबर के प्रति अपना आदर-भाव बनाए रखने में आज भी कोई हिचक महसूस नहीं करता हूं।
लेकिन मेरे मूल राज्य मध्यप्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सदस्य अकबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विदेश राज्य मंत्री की कुर्सी पर आसीन देख कर मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि हंसूं या रोऊं? 27 साल पहले 1989 में जब अकबर कांग्रेस के प्रवक्ता थे तो मैं कांग्रेस कवर करने वाले पत्रकार के नाते सामने बैठ कर उनका बोला लिखा करता था। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और अकबर की उनसे नज़दीकी कांग्रेस के कई मंत्रियों को खला करती थी। रोज़ाना होने वाले संवाददाता सम्मेलन से पहले अकबर ताज़ा विषयों की जानकारी लेने के लिए अलग-अलग मंत्रियों को फ़ोन किया करते थे। अकबर का फ़ोन रखने के बाद दांत पीसने वाले कई मंत्रियों को मैं ने तब नज़दीक से देखा है। राजीव साथ थे तो 1989 में बिहार के किशनगंज से अकबर आराम से टहलते हुए लोकसभा में पहुंच गए। लेकिन राजीव नहीं थे तो दो साल बाद 1991 में वहीं से वे हार गए। अर्जुन सिंह मानव संसाधन मंत्री थे तो उन्होंने अकबर को अपने मंत्रालय का सलाहकार बना लिया। दिसंबर 1992 में जब अयाध्या का हादसा हुआ तो अकबर ने सरकार छोड़ दी और पत्रकारिता में लौट गए। पढ़ने-लिखने वालों को एक बार फिर अकबर की क़लम की तान पर मुग्ध होने का मौक़ा मिला।
उस दौर में 2002 के गुजरात विधानसभा चुनाव के आसपास अकबर ने नरेंद्र मोदी के बारे में लिखा: “मोदी एक विचारक हैं–लेकिन एक फ़र्क के साथ। यह फ़र्क है उन्माद का। एक ऐसा पैना उन्माद, जो लोगों को सम्मोहित कर सकता है और अंततः आसानी से ऐसे अहंकारोन्माद में तब्दील हो जाता है कि राजनीतिक को लगने लगता है कि अपने आभासी-शत्रु के खि़लाफ़ विनाशकारी माहौल भड़का कर दरअसल वह समाज का व्यापक हित कर रहा है। हिटलर के मामले में यह शत्रु यहूदी थे। मोदी के मामले में यह शत्रु मस्लिम हैं। ऐसा राजनीतिक मूर्ख नहीं होता है। उलटे, उसकी बुद्धि का स्तर काफी ऊंचा हो सकता है। लेकिन यह बुद्धि तर्क से परे और मानवीय संस्कारों से रहित होती है। अगर मोदी को बड़ी जीत मिलती है तो वे सबसे पहला काम पूरी भाजपा को अपने गुजरात-प्रयोग की कर्मशाला बनाने का करेंगे। वे अभी से अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेतृत्व का अनादर करने लगे हैं। आडवाणी की चुनावी सभाओं में इस बार इसलिए बहुत कम भीड़ आई कि मोदी उन्हें दिखा देना चाहते थे कि गुजरात में दिल्ली से आए किसी नेता की नहीं, सिर्फ़ उनकी और उनकी ही तूती बोलती है। मोदी अपनी पार्टी के भीतर ही चुनौती बनेंगे और उन्हें कुछ समर्थन भी मिल सकता है। गुजरात शैली के आडंबर की लहर से राष्ट्रीय स्तर की जीत हासिल करने के पर मोदी प्रधानमंत्री बनने का सपना भी देखेंगे। वे भारत में अन्य स्थानों पर गोधरा दोहराने के लिए आतंकवादियों की मदद लेंगे। मोदी के सपने में बस इतनी-सी खामी है कि दिल्ली के आसपास भी कहीं पहुंचने से काफी पहले ही वे भाजपा को पूरी तरह नष्ट कर चुके होंगे।”
लोकसभा के पिछले आम चुनाव से दो महीने पहले जब राजीव गांधी के प्रवक्ता अकबर ने भाजपा के प्रवक्ता की ज़िम्मेदारी बाक़़ायदा संभाली तो चारों धाम की इस यात्रा के संपन्न होने पर कइयों को चकरघिन्नी आना स्वाभाविक था। राहुल गांधी के मोदी की तुलना हिटलर से करने पर बाहें चढ़ा लेने वाली भाजपा अकबर के लिए पलक-पांवड़े बिछाने को तैयार है तो इसमें किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए। अकबर ने मोदी को यह साबित करने का मौक़ा दिया है कि हिटलर जिस तरह यहूदियों के बारे में सोचता था, वे मुस्लिमों के बारे में नहीं सोचते। उन्हें अच्छे-बुरे का फ़र्क करना आता है। इसलिए अगर गुजरात के दंगों के बाद अकबर उनकी तुलना हिटलर से कर रहे थे तो अकबर ग़लत थे, वे नहीं। दंगों के बीजगणित पर ग्रंथ लिखने वाला कोई लेखक मोदी का इससे बड़ा सार्वजनिक अभिनंदन और क्या कर सकता था? मोदी ने अकबर को जो दिया, सो, दिया; अकबर ने मोदी को जो दिया है, उसका तो कोई मोल ही नहीं है।
‘ब्लड ब्रदर्स’ औपन्यासिक शैली में लिखी अकबर के परिवार की कथा है। इसमें ज़िक्र है कि कैसे भूख से लड़ता बिहार का एक ब्राह्मण बालक कोलकाता के उत्तर में चंदन नगर के पास जूट मिलों की भीड़ वाले एक कस्बे तेलिनपाड़ा पहुंचता है, कैसे मुस्लिम परिवार उसकी परवरिश करता है और कैसे वह प्रयाग से रहमतुल्लाह बनता है? यह अकबर के दादा का क़िस्सा है। शायद अपने दादा की याद में ही अकबर ने अपने बेटे का नाम प्रयाग रखा है। अपने अतीत की यादें सबको परेशान नहीं करतीं। वे उन्हें सालती हैं, जो ऊपर से कुछ भी लगें, भीतर भावनाओं का समंदर पाले होते हैं। भावनाएं जब हिलोरें लेती हैं तो तमाम दिमाग़ी बांध ढह जाते हैं। लेकिन देसी-विदेशी इतिहास की अधिनायकवादी व्यवस्थाओं का विश्लेषण कर ठोस निष्कर्षों पर पहुंचने का माद्दा रखने वाले किसी विचारक से क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि उसने अपनी भावनाओं को बेमतलब ही ऐसे बह जाने दिया होगा कि वे आंख मंूद कर ‘कल के उन्मादी’ की गोद में खेल रही हैं?
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