क़रीब पैंतीस साल पहले की बात होगी। दिल्ली के ताज मानसिंह होटल में दैनिक अड्डेबाज़ी करने वाले एक संपर्क-पुरुष ने महरौली के अपने फॉर्म हाउस पर एक रस-रंजित पार्टी दी। उस ज़माने के तमाम मशहूर पत्रकार, राजनीतिक और आला अफ़सर अल-सुबह तक उसमें झूमे। अगली दुपहरी आते-आते इस पार्टी की चटखारेदार ख़बरें दिल्ली के बरामदों में पसरने लगीं। एकाध दिन बाद इक्का-दुक्का अख़बारों में कुछ छपा-छपाया, लेकिन इसके बाद ताबड़तोड़ निकले अग्नि-शमन दस्तों की फुहारों ने सुनिश्चित कर लिया कि अब कहीं कुछ और न छपे।
बाबू जगजीवन राम का वाहन चलाते-चलाते एक क़ामयाब संपर्क-पुरुष (कॉन-मैन) का चोला धारण कर लेने वाले इस महामना ने उन दिनों एक युवा व्यवसायी को कई सरकारी टेंडर दिलाने में खूब मदद की। सरकार से मिले बड़े-बड़े ठेकों ने इस व्यवसायी की क़िस्मत बदल दी। उन्हीं दिनों सीबीआई ने कुछ घपला सूंघ कर एक बड़े बैंक के मैनेजर को पकड़ा तो यह व्यवसायी भी लपेटे में आ गए। उनके घर की तलाशी हुई तो नीली फ़िल्मों के कुछ कैसेटों के अलावा क्या मिला, किसी को मालूम नहीं हुआ। दिन-रात पूछताछ के बाद आख़िर व्यवसायी के खि़लाफ़ कुछ नहीं हुआ, क्योंकि कोई सबूत मिले तो कुछ हो।
इस युवा व्यवसायी ने आगे चल कर सत्ताधीशों के बीच उन दिनों चहलक़दमी करने वाले एक योगी को पकड़ा और चावल के निर्यात का धंधा शुरू कर दिया। दिया कुछ- बताया कुछ और करोड़ों का वारा-न्यारा होता रहा। सरकारी बैंक अपने-अपने कारणों से व्यवसायी के सामने नत-मस्तक होते रहे और धंधा करने के लिए उन्हें पैसा मुहैया कराते रहे। दिल्ली में पैसा कमाने के बाद उन दिनों किसी को बंबई अपनी तरफ़ आकर्षित न करे, ऐसा भला कहीं हो सकता था? सो, व्यवसायी को जैसे ही पता चला कि हाइकोर्ट बंबई में एक ज़मीन नीलाम करने वाली है, वह मौक़ा क्यों छोड़ते? महज़ 27 लाख रुपए में उन्होंने 753 एकड़ ज़मीन ख़रीद ली। वहां निर्माण में अड़चनें आने लगीं तो उन्हें दूर करने के लिए महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री के सामने उस ज़मीन पर नेहरू जी के नाम बच्चों के लिए एक मनोरंजन पार्क बनाने की पेशकश रखी। प्रस्ताव तब तो मंजूर नहीं हुआ, लेकिन कुछ बरस बाद दिल्ली से सियासी समीकरण बदलने पर राज्य के इन्हीं मुख्यमंत्री ने आखि़रकार एक बड़ा मनोरंजन पार्क बनाने की मंजूरी दे दी और खुद उसका उद्घाटन किया। नेहरू के नाम की ज़रूरत तब तक समाप्त हो चुकी थी।
“जो होगा, देखा जाएगा” की धुन गुनगुनाते-गुनगुनाते इस व्यवसायी ने ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड में कंपनी बनाई और हांगकांग से संचालित होने वाले कामकाज के ज़रिए भारत में पहले निजी टेलीविजन चैनल की नींव रख दी। तीन दशक पहले इसके लिए चालीस लाख डॉलर का एक बड़ा हिस्सा कहां से आया था, इस व्यवसायी को आज तक ख़ुद नहीं पता। चैनल आज देश-विदेश में खूब फल-फूल गया है।
गुज़रे शनिवार सियासत के कुरुक्षेत्र में बिछी चौपड़ के पॉसों ने इस व्यवसायी को भारत की संसद के उच्च-सदन में चुन कर भेज दिया। ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ–का राग अलापने वाले अब अगले छह साल अपने अरण्य-रोदन की सालगिरह मनाते रहेंगे। पेन की स्याही के रंग तक को अपनी साज़िश का हिस्सा बनाने की सोच रखने वाले, जो करना था, फ़िलहाल तो कर ही चुके। मुसीबत तो यह है कि लोकतंत्र में कांटे से कांटा निकालने की चिकित्सा-प्रणाली पर जिन्हें ज़रूरत से ज़्यादा यक़ीन है, वे भूल गए कि अभी वह तकनीक तो आई नहीं है कि ऐसी किसी शल्य-क्रिया में दोनों कांटे निराकार हो जाएं। एक कांटा तो बचा रह ही जाएगा और जब तक रहेगा लोकतंत्र की चादर को कुतरेगा भी।
अलग क़िस्म की राजनीति करने वाले दल की मदद से एक और बड़े क़ारोबारी को भी संसद के उच्च-सदन में एक आदिवासी-बहुल प्रदेश से आने का मौक़ा इस बार मिल गया। जो कह रहे हैं कि आदिवासी हितों की छाती पर मूंग दल कर अपनी राह बनाने वालों ने ऐसा कर के गु़नाह किया है, वे कहते रहें। जब जहांगीर ही कानों में उंगलियां डाले बैठ जाए तो आप इंसाफ़ की गुहार का घंटा बजाते रहिए। जिन्हें मुंडेर पर खड़े हो कर पतंग उड़ाने का शौक़ है, उन्हें छत से गिर जाने की शिक़ायत करने का हक़ नहीं हुआ करता।
ग़नीमत रही कि राज्यसभा के इन चुनावों में राम के जन्म-भूमि प्रदेश ने मर्यादा की लाज रख ली। कहीं मुंबई से कमल-पंखुड़ियों पर चल कर इस राज्य की राजनीति को नवाज़ने आई शख़्सियत भी उच्च-सदन में पहुंच जाती तो रही-सही क़सर भी पूरी हो जाती। ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपनी पगड़ी संभाले हिचकोले खा रहा होता। चलो, आस बंधी कि सियासत की आंखों में शर्म अभी बाक़ी है। वरना ऐसी फ़िजा के क़हर में जिं़दा रहने का कमाल जम्हूरियत भी और कितने दिन दिखा पाती!
निजी जागीरों में बंटी मैदानी राजनीति की सड़ांध से जिनकी नाक नहीं फट रही, उनकी ढीठता को मैं नमन् करता हूं। लेकिन राज्यसभा की रहगुज़र में उग आए नंग-मंच भी जिन्हें विचलित नहीं कर रहे, उनकी गैंडा-वृत्ति पर भी क्या आप ख़ामोश रहेंगे? सत्ता की बिसात पर अंक-बल का कितना ही महत्व क्यों न होता हो, मगर क्या उसे हासिल करने के लिए सब जायज़ है? भारतीय संस्कृति के पुरोधाओं को अपनी इंद्रसभा सुरक्षित रखने के लिए हम किस सीमा तक जाने देंगे?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का माहौल बना रहे हैं। कोई भी समझ सकता है कि वे इसके लिए क्यों इतने लालायित हैं? देश के पचास प्रतिशत हिस्से पर भारतीय जनता पार्टी के काबिज़ हो जाने के बाद उनकी हड़बड़ी वाज़िब है। चुनावी राजनीति उनके लिए अखाड़ा है। इस अखाड़े के दांव-पेंच उन्हें बखूबी आ गए हैं। मोदी के पास न तो चुनावी-बाउंसरों की कमी है और न ही सबके पास इन बाउंसरों से बराबरी का मुक़ाबला करने लायक़ लोग हैं। सो, भाजपा को लगता है कि लोकतंत्र की भैंस वह अपने पाले में आसानी से ले जा सकती है।
इसीलिए यही लठैती संसद के उच्च-सदन में भी शुरू हो गई है। इसका चरम रूप इस बार के राज्यसभा चुनावों में दिखा है। तिकड़मों के बूते दिग्गजों को पछाड़ने के काम पहले भी होते रहे हैं। लेकिन जिस त्वरा और तेवर से इस बार यह हुआ, बेमिसाल है। नरेंद्र भाई के राज में अर्थव्यवस्था में गिरावट, रोज़गार में गिरावट, उत्पादन में गिरावट और निर्यात में गिरावट से जूझ रहे देश ने अगर नैतिकता में गिरावट की भी ऐसी ही चाबुकें झेलीं तो तीन साल बीतते-बीतते भाजपा के झंडे में पता नहीं कितने पैबंद लग जाएंगे! “आगे पाग, न पीछे पगहा“ का दावा करने वाले मोदी भी अगर लोकतांत्रिक मूल्यों की पतन-गाथा ही लिखना चाहते हैं तो फिर अच्छे दिन इस जनम में तो आने से रहे!
पारदर्शी टेली-प्रॉम्पटर पर शब्दों की अदाकारी से अमेरिकी संसद की तालियां लूटना भले ही आसान हो, भारतीय संसद की तालियों से अपनी झोली भरने के लिए तो नरेंद्र भाई को उच्च तो उच्च, निचले सदन की ऊंचाई भी हर हाल में क़ायम रखनी होगी। अभी तो वे इसका उलट करते ही दिखाई दे रहे हैं। मुझे तो उनसे यह उम्मीद नहीं है कि अपने पुराने संस्कारों से मुक्ति पाकर कभी वे भारतीय राष्ट्र-राज्य के प्रमुख की भूमिका निभा पाएंगे। लेकिन जिनकी यह उम्मीद अभी मुरझाई नहीं है, उन्हें मैं शुभकामनाएं देता हूं कि उनके सपने न टूटें। आखि़र किसी भी जड़-स्थिति में परिवर्तन के लिए सपनों के संसार की सैर भी तो ज़रूरी है।
लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
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