एक फ़कीर थे बुद्ध, एक फ़कीर थे महावीर। एक फ़कीर थे कबीर, एक फ़कीर थे रहीम। एक फ़कीर थे रसखान, एक फ़कीर थे तुलसी। एक फ़कीर थे तुकाराम, एक फ़कीर थे एकनाथ। एक फ़कीर थे प्रेमचंद, एक फ़कीर थे नागार्जुन। एक फ़कीर थे गांधी, एक फ़कीर थे विनोबा। एक फ़कीर थे जयप्रकाश नारायण, एक फ़कीर थे बाबा आम्टे। एक फ़कीर थे भगत सिंह, एक फ़कीर थे टांट्या भील। इन सबकी फ़कीरी के किस्सों ने भारतवासियों की आंखों पर ऐसा परदा डाल दिया है कि हम फ़कीरी की असली परिभाषा ही भूल गए हैं। अब जब पिछले ढाई बरस से भारत हर क्षेत्र में परिभाषाओं की पुनर्रचना के दौर से गुज़र रहा है तो यह हमारा सौभाग्य है कि तीन दिसंबर की दोपहर उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में एक नए फ़कीर का अवतार होते हमने देखा। हमारे अंतःचक्षु अगर इस रोशनी से भी नहीं खुले तो जम्बूद्वीप में स्थित भरतखंड को शून्य में समा जाने से अब कोई शक्ति नहीं बचा सकेगी।
मैं तो आदि शंकराचार्य, अरविंदो, बाबा हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, रामानंद, मत्स्यैंद्रनाथ, नामदेव, नरसी मेहता, मीराबाई, रामकृष्ण परमहंस, समर्थ रामदास, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, जिड्डू कृष्णमूर्ति, अली शाह पीरबाबा, अमीर खुसरा, अजान पीर, बंदे नवाज़, बुल्ले शाह, ग़रीब नवाज़, बाबा फ़रीद और मोइनुद्दीन चिश्ती जैसे अन-गिन फ़कीरों की धरती पर जन्म लेकर ही इठलाता घूम रहा था। मगर अब मुरादाबाद में अपने नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी की स्व-घोषित फ़कीरी ने तो मेरे पैरों में ऐसे घंघुरू बांध दिए हैं कि नाच आए-न-आए, आंगन के सीधे-टेढ़े होने की परवाह किए बिना, मेरी थिरकन है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही है।
नरेंद्र भाई, सो भी हमारे प्रधानमंत्री, उस पर भी चुनावों में जाता उत्तर प्रदेश और तिस पर हज़ार-पांच सौ के नोटों की शव-यात्रा के पच्चीसवें दिन बाद मुरादाबाद की उनकी परिवर्तन रैली। इससे ज़्यादा किसी ख़बरनवीस को क्या चाहिए? ज़ाहिर है कि आंखें छोटे परदे पर चस्पा थीं और कान प्रधानमंत्री की ज़ुबान से झर रहे एक-एक शब्द पर। ग़रीबों को अपनी मसीहाई का यक़ीन दिलाने के लिए अपनी शाब्दिक पूर्व-क्रीड़ा के पंद्रहवें मिनट नरेंद्र भाई अपने असली रंग में आ गए अपनी देह-भाषा को चरम-पराक्रमी बनाते हुए बोले: ‘‘भाइयो-बहनो, ज़्यादा-से-ज़्यादा ये मेरा क्या कर लेंगे भाई? नहीं, नहीं, बताइए, क्या कर लेंगे? अरे, हम तो फ़कीर आदमी हैं। झोला लेकर चल पड़ेंगे जी।‘‘चंद लमहे तालियां सुनने के लिए रुकने के बाद देश के प्रधानमंत्री ने उपसंहार किया: ‘‘यह फ़कीरी है, जिसने मुझे ग़रीबों के लिए लड़ने की ताक़त दी है भाइयो-बहनो।‘‘ इसके बाद उन्होंने बताया कि किस तरह इंदिरा गांधी ने ग़रीबों को सहूलियत देने के नाम पर बैंकों का राष्ट्रीयकरण तो कर दिया था, लेकिन ग़रीबों को बैंकों के दरवाज़े जाने का मौक़ा नहीं दिया।
अपने प्रधानमंत्री के फ़कीरपन की इस अदा में जिन्हें दिन में तारे नज़र नहीं आए, वे अपनी दिवान्धता का इलाज़ कराएं। मैं तो भारत की हर उपलब्धि की शुरुआत ढाई वर्ष पूर्व खुद के आगमन के दिन से ही होने की नरेंद्र भाई की अगाध आस्था पर इतना रीझा हुआ हूं कि यह भी भूल जाता हूं कि और भी लोग थे, जो खुद को खुदा कहते थे। मैं तो समझता था कि फ़कीर सत्य की खोज और आत्मानुसंधान में अपना जीवन लगाया करते थे। यह तो अब मेरी समझ में आया कि सच से भय खाने वाले और आत्म-अवलोकन से दूर भागने वालों को भी जम्हूरियत अपने फ़कीरत्व पर गर्व करने का हक़ देती है। मैं ने सुना था कि अहंकार की भावना मनुष्य को सीमित करती है, संस्कृति और संस्कारों को सीमित करती है। लेकिन अब मुझे यह नया पाठ सीखना है कि अहंकार की भावना से ओतप्रोत रह कर भी आप फ़कीरत्व हासिल कर सकते हैं।
1969 की जुलाई में जिस शनिवार को इंदिरा गांधी ने 14 बड़ें बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, उससे नरेंद्र मोदी के नोट-बंदी मंगलवार की तुलना करने का जंगली ख़्वाब कोई अर्थशास्त्री तो देख ही नहीं सकता। 19 जुलाई 1969 और 8 नवंबर 2016 में 47 बरस से ज़्यादा का फ़र्क है और तब हमारे आज के प्रधानमंत्री बालिग हुए ही भर थे। आज 85 फ़ीसदी नोटों को चलन से बाहर कर जनता को क़तारों में खड़ा कर देने वाले लोग यह नहीं जानते हैं कि इंदिरा गांधी ने जिन बैंकों को निजी मुट्ठियों से बाहर ला कर जनता की चौपाल पर सजा दिया था, उनमें लोगों की कुल बचत का 85 फ़ीसदी हिस्सा जमा था। आज मोदी के फ़ैसले को उनके सगे भी अधकचरा बता रहे हैं, लेकिन इंदिरा गांधी के क़दम को तब जयप्रकाश नारायण तक ने ‘राजनीतिक बुद्धिमत्ता की मिसाल‘ बताया था।
जो जानबूझ कर कहते हैं कि राष्ट्रीयकरण से बैंकों के दरवाज़े ग़रीबों के लिए नहीं खुले, वे यह तथ्य छिपाने की काइयांगिरी करते हैं कि 1969 में देश भर में बैंकों की सिर्फ़ 8826 ही शाखाएं थीं और वो इसलिए कि बैंकों के निजी मालिक गांव-गांव जाने को तैयार नहीं थे। बैंकों का सरकारीकरण होने के बाद ही गांव-देहातों और कस्बों में बैंकों की शाखाएं तेज़ी से खुलीं। दो दशक के भीतर उनकी तादाद सात गुनी से ज़्यादा हो गई। आज की सरकार देश भर में बैंकों की जिन सवा लाख से ज़्यादा शाखाओं की संख्या पर अपनी पीठ ठोक रही है, उनमें से इन ढाई साल में कितनी खुली हैं? नरेंद्र भाई की पूर्ववर्ती सरकार गांवों में चालीस हज़ार, कस्बों में तीस हज़ार, शहरों में बीस हज़ार और महानगरों में अठारह हज़ार बैंक शाखाएं छोड़ कर विदा हुई थी।
अपनी हर जनसभा में मोबाइल फोन के ज़रिए भुगतान करने की बाल-किलकारियां भरने वाले हमारे प्रधानमंत्री को मालूम होना चाहिए कि बैंकों के कंप्यूटरीकरण का सुझाव 28 साल पहले बनी सी. रंगराजन समिति ने दिया था और 24 साल पहले यह काम शुरू भी हो गया था। 22 साल पहले डब्ल्यू. एस. सराफ समिति ने बैंकों में इलेक्ट्रॉनिक फंड ट्रांसफर का काम शुरू करा दिया था। अदायगी करने वाले बैंक को चैक डाक से भेजने की व्यवस्था आठ साल पहले ख़त्म हो कर इलेक्ट्रॉनिक हो चुकी है। मोबाइल बैंकिंग, नेट बैंकिंग और टेली बैंकिंग का पूरा विस्तार तो 2004 से 2014 के बीच ही हो चुका था। देश भर में एटीएम की तादाद 50 हज़ार से बढ़ कर तक़रीबन पौने दो लाख तक पहुंच जाने के बाद मोदी दिल्ली की गद्दी पर विराजे हैं।
नरेंद्र भाई के पहले के प्रधानमंत्री ग़रीबों के मसीहा थे या नहीं, यह देश तय करेगा। सबकी फ़कीरी के दूध का गाढ़ापन भी मुल्क़ ही नापेगा। मिट्ठुओं की बातों में कितना आना है, कितना नहीं, भारतवासी खूब जानते हैं। यह पहला मौक़ा नहीं है, जब ख़ामोशी की भाषा को ग़लत समझ लिया गया हो। जो नहीं जानते, वे जान लें कि मौन हमेशा स्वीकृति का लक्षण नहीं होता है। जो समझ रहे हैं कि मौसम गुलाबी है, उन्हें यह नहीं मालूम कि अपने नोटों का अपमानजनक टोटा तो यह देश फ़िलहाल झेल लेगा, लेकिन अपने सत्ताधीशों की अक़्ल का डरावना टोटा उसे भीतर तक जितना झकझोर गया है, उससे उबरने की छटपटाहट का सैलाब आने वाले दिनों में सब बहा ले जाएगा। यह देश क्या अब आपसे फ़कीरी सीखेगा, नरेंद्र भाई! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
एक फ़कीर थे गांधी, एक फ़कीर थे विनोबा। एक फ़कीर थे जयप्रकाश नारायण, एक फ़कीर थे बाबा आम्टे। एक फ़कीर थे भगत सिंह, एक फ़कीर थे टांट्या भील। इन सबकी फ़कीरी के किस्सों ने भारतवासियों की आंखों पर ऐसा परदा डाल दिया है कि हम फ़कीरी की असली परिभाषा ही भूल गए हैं। अब जब पिछले ढाई बरस से भारत हर क्षेत्र में परिभाषाओं की पुनर्रचना के दौर से गुज़र रहा है तो यह हमारा सौभाग्य है कि तीन दिसंबर की दोपहर उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में एक नए फ़कीर का अवतार होते हमने देखा। हमारे अंतःचक्षु अगर इस रोशनी से भी नहीं खुले तो जम्बूद्वीप में स्थित भरतखंड को शून्य में समा जाने से अब कोई शक्ति नहीं बचा सकेगी।
मैं तो आदि शंकराचार्य, अरविंदो, बाबा हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, रामानंद, मत्स्यैंद्रनाथ, नामदेव, नरसी मेहता, मीराबाई, रामकृष्ण परमहंस, समर्थ रामदास, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, जिड्डू कृष्णमूर्ति, अली शाह पीरबाबा, अमीर खुसरा, अजान पीर, बंदे नवाज़, बुल्ले शाह, ग़रीब नवाज़, बाबा फ़रीद और मोइनुद्दीन चिश्ती जैसे अन-गिन फ़कीरों की धरती पर जन्म लेकर ही इठलाता घूम रहा था। मगर अब मुरादाबाद में अपने नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी की स्व-घोषित फ़कीरी ने तो मेरे पैरों में ऐसे घंघुरू बांध दिए हैं कि नाच आए-न-आए, आंगन के सीधे-टेढ़े होने की परवाह किए बिना, मेरी थिरकन है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही है।
नरेंद्र भाई, सो भी हमारे प्रधानमंत्री, उस पर भी चुनावों में जाता उत्तर प्रदेश और तिस पर हज़ार-पांच सौ के नोटों की शव-यात्रा के पच्चीसवें दिन बाद मुरादाबाद की उनकी परिवर्तन रैली। इससे ज़्यादा किसी ख़बरनवीस को क्या चाहिए? ज़ाहिर है कि आंखें छोटे परदे पर चस्पा थीं और कान प्रधानमंत्री की ज़ुबान से झर रहे एक-एक शब्द पर। ग़रीबों को अपनी मसीहाई का यक़ीन दिलाने के लिए अपनी शाब्दिक पूर्व-क्रीड़ा के पंद्रहवें मिनट नरेंद्र भाई अपने असली रंग में आ गए अपनी देह-भाषा को चरम-पराक्रमी बनाते हुए बोले: ‘‘भाइयो-बहनो, ज़्यादा-से-ज़्यादा ये मेरा क्या कर लेंगे भाई? नहीं, नहीं, बताइए, क्या कर लेंगे? अरे, हम तो फ़कीर आदमी हैं। झोला लेकर चल पड़ेंगे जी।‘‘चंद लमहे तालियां सुनने के लिए रुकने के बाद देश के प्रधानमंत्री ने उपसंहार किया: ‘‘यह फ़कीरी है, जिसने मुझे ग़रीबों के लिए लड़ने की ताक़त दी है भाइयो-बहनो।‘‘ इसके बाद उन्होंने बताया कि किस तरह इंदिरा गांधी ने ग़रीबों को सहूलियत देने के नाम पर बैंकों का राष्ट्रीयकरण तो कर दिया था, लेकिन ग़रीबों को बैंकों के दरवाज़े जाने का मौक़ा नहीं दिया।
अपने प्रधानमंत्री के फ़कीरपन की इस अदा में जिन्हें दिन में तारे नज़र नहीं आए, वे अपनी दिवान्धता का इलाज़ कराएं। मैं तो भारत की हर उपलब्धि की शुरुआत ढाई वर्ष पूर्व खुद के आगमन के दिन से ही होने की नरेंद्र भाई की अगाध आस्था पर इतना रीझा हुआ हूं कि यह भी भूल जाता हूं कि और भी लोग थे, जो खुद को खुदा कहते थे। मैं तो समझता था कि फ़कीर सत्य की खोज और आत्मानुसंधान में अपना जीवन लगाया करते थे। यह तो अब मेरी समझ में आया कि सच से भय खाने वाले और आत्म-अवलोकन से दूर भागने वालों को भी जम्हूरियत अपने फ़कीरत्व पर गर्व करने का हक़ देती है। मैं ने सुना था कि अहंकार की भावना मनुष्य को सीमित करती है, संस्कृति और संस्कारों को सीमित करती है। लेकिन अब मुझे यह नया पाठ सीखना है कि अहंकार की भावना से ओतप्रोत रह कर भी आप फ़कीरत्व हासिल कर सकते हैं।
1969 की जुलाई में जिस शनिवार को इंदिरा गांधी ने 14 बड़ें बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, उससे नरेंद्र मोदी के नोट-बंदी मंगलवार की तुलना करने का जंगली ख़्वाब कोई अर्थशास्त्री तो देख ही नहीं सकता। 19 जुलाई 1969 और 8 नवंबर 2016 में 47 बरस से ज़्यादा का फ़र्क है और तब हमारे आज के प्रधानमंत्री बालिग हुए ही भर थे। आज 85 फ़ीसदी नोटों को चलन से बाहर कर जनता को क़तारों में खड़ा कर देने वाले लोग यह नहीं जानते हैं कि इंदिरा गांधी ने जिन बैंकों को निजी मुट्ठियों से बाहर ला कर जनता की चौपाल पर सजा दिया था, उनमें लोगों की कुल बचत का 85 फ़ीसदी हिस्सा जमा था। आज मोदी के फ़ैसले को उनके सगे भी अधकचरा बता रहे हैं, लेकिन इंदिरा गांधी के क़दम को तब जयप्रकाश नारायण तक ने ‘राजनीतिक बुद्धिमत्ता की मिसाल‘ बताया था।
जो जानबूझ कर कहते हैं कि राष्ट्रीयकरण से बैंकों के दरवाज़े ग़रीबों के लिए नहीं खुले, वे यह तथ्य छिपाने की काइयांगिरी करते हैं कि 1969 में देश भर में बैंकों की सिर्फ़ 8826 ही शाखाएं थीं और वो इसलिए कि बैंकों के निजी मालिक गांव-गांव जाने को तैयार नहीं थे। बैंकों का सरकारीकरण होने के बाद ही गांव-देहातों और कस्बों में बैंकों की शाखाएं तेज़ी से खुलीं। दो दशक के भीतर उनकी तादाद सात गुनी से ज़्यादा हो गई। आज की सरकार देश भर में बैंकों की जिन सवा लाख से ज़्यादा शाखाओं की संख्या पर अपनी पीठ ठोक रही है, उनमें से इन ढाई साल में कितनी खुली हैं? नरेंद्र भाई की पूर्ववर्ती सरकार गांवों में चालीस हज़ार, कस्बों में तीस हज़ार, शहरों में बीस हज़ार और महानगरों में अठारह हज़ार बैंक शाखाएं छोड़ कर विदा हुई थी।
अपनी हर जनसभा में मोबाइल फोन के ज़रिए भुगतान करने की बाल-किलकारियां भरने वाले हमारे प्रधानमंत्री को मालूम होना चाहिए कि बैंकों के कंप्यूटरीकरण का सुझाव 28 साल पहले बनी सी. रंगराजन समिति ने दिया था और 24 साल पहले यह काम शुरू भी हो गया था। 22 साल पहले डब्ल्यू. एस. सराफ समिति ने बैंकों में इलेक्ट्रॉनिक फंड ट्रांसफर का काम शुरू करा दिया था। अदायगी करने वाले बैंक को चैक डाक से भेजने की व्यवस्था आठ साल पहले ख़त्म हो कर इलेक्ट्रॉनिक हो चुकी है। मोबाइल बैंकिंग, नेट बैंकिंग और टेली बैंकिंग का पूरा विस्तार तो 2004 से 2014 के बीच ही हो चुका था। देश भर में एटीएम की तादाद 50 हज़ार से बढ़ कर तक़रीबन पौने दो लाख तक पहुंच जाने के बाद मोदी दिल्ली की गद्दी पर विराजे हैं।
नरेंद्र भाई के पहले के प्रधानमंत्री ग़रीबों के मसीहा थे या नहीं, यह देश तय करेगा। सबकी फ़कीरी के दूध का गाढ़ापन भी मुल्क़ ही नापेगा। मिट्ठुओं की बातों में कितना आना है, कितना नहीं, भारतवासी खूब जानते हैं। यह पहला मौक़ा नहीं है, जब ख़ामोशी की भाषा को ग़लत समझ लिया गया हो। जो नहीं जानते, वे जान लें कि मौन हमेशा स्वीकृति का लक्षण नहीं होता है। जो समझ रहे हैं कि मौसम गुलाबी है, उन्हें यह नहीं मालूम कि अपने नोटों का अपमानजनक टोटा तो यह देश फ़िलहाल झेल लेगा, लेकिन अपने सत्ताधीशों की अक़्ल का डरावना टोटा उसे भीतर तक जितना झकझोर गया है, उससे उबरने की छटपटाहट का सैलाब आने वाले दिनों में सब बहा ले जाएगा। यह देश क्या अब आपसे फ़कीरी सीखेगा, नरेंद्र भाई!
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