लोक-कल्याण का मार्ग हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को यूं कभी मिलता या नहीं और मिलता भी तो कब मिलता, पता नहीं; सो, उन्होंने अपने घर तक पहुंचने वाले मार्ग का नाम ही बदल कर लोक कल्याण मार्ग रखवा लिया। चाहते तो वे यह थे कि रेसकोर्स रोड का नाम बदल कर एकात्म मार्ग रख दिया जाए। एकात्म मानववाद की विवेचना से पंडित दीनदयाल उपाध्याय का अंतःसंबंध आड़े न आता तो उनकी इच्छा पूरी हो भी जाती। लेकिन अरविंद केजरीवाल जैसे बखेड़ेबाज़ के चलते ‘एकात्म’ से चंद सीढि़यां नीचे उतर कर मोदी को ‘लोक कल्याण’ से सब्र करना पड़ा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों के खाद-पानी से पनपी पौध भारत की प्राचीन मनीषा के सिर्फ़ दो आधुनिक व्याख्याकारों को जानती है। एक, माधव सदाशिव गोलवलकर और दूसरे, दीनदयाल उपाध्याय। संघ-समुदाय की सम्यक दृष्टि उन्हीं से शुरू होती है और उन्हीं पर ख़त्म। इस कबीले के सभी सदस्यों का पक्का मानना है कि भारतीय समाज को अपने अंतर्विरोधों पर जीत हासिल करने लायक अगर किसी ने बनाया है तो गोलवलकर और दीनदयाल ने और उनकी एकात्म-दृष्टि ही मानव-जाति को विनाश से बचा सकती है। नई दिल्ली नगरपालिका परिषद के कुछ अल्प-बुद्धि सदस्य यह समझ ही नहीं पाए कि हमारे प्रधानमंत्री का निवास एकात्म मार्ग पर होने से भारत के विश्व-गुरू बनने की राह रातों-रात कितनी आसान हो जाती! इस एक घटना से जो वैश्विक-संदेश जाता, उससे पूरी मानवता का भला हुआ होता। मगर छोटी सोच रखने वालों के मारे यह सौभाग्य देश के हाथों से जाता रहा!
फिर भी मैं तो कुल मिला कर संतुष्ट हूं। ‘लोक-कल्याण’ के जिस मार्ग पर अब नरेंद्र भाई रहेंगे, उसका भी हमारी वैदिक संस्कृति में सबसे ऊंचा स्थान है। भौतिक संसार में इससे बड़ी साधना और कुछ है ही नहीं। इस राह पर प्रधानमंत्री चलें, चलें, न चलें; इस मार्ग पर रहने भर से उन्हें जितनी पुण्याई मिलेगी, वही इस भव-सागर को पार करने के लिए काफी होगी। जिस देश के शासक के मन में इस तरह की उदात्त पवित्र भावनाएं अनवरत हिलोरें लेती हो कि उसे अगर रहना है तो ‘लोक कल्याण मार्ग’ पर ही रहना है, उस देश को युगों-युगों तक अपने आप ही दुनिया का सिरमौर बने रहने से कौन रोक सकता है?
ज्ञान, कर्म और शब्द की त्रिवेणी को नरेंद्र भाई के युग में फिर से परिभाषित होते हम जिस तरह देख रहे हैं, वह ‘भूतो न भविष्यति’ है। ज्ञान की गंगा का बहाव बदलने के लिए पिछले ढाई साल में हर स्तर पर खोदी गई नहरें भारत की सदियों पुरानी तसवीर बदल रही हैं। कर्म परिपक्वता से बचकानेपन की तरफ़ ढलक रहे हैं। शब्द अपने मायने खोकर ज़ुमलों में तब्दील हो गए हैं। इतने पर भी अगर हमारे प्रधानमंत्री को लग रहा है कि लोगों को अब भी उनके इरादों और शब्दों पर भरोसा है तो रेसकोर्स से लोक कल्याण तक की यात्रा पर खुश होने का हक़ उन्हें है।
अगर नाम बदलने से ही कर्म बदलते हैं तो अब तक तीन मूर्ति मार्ग, सफदरजंग रोड और रेसकोर्स रोड पर रहने वाले प्रधानमंत्रियों के जीवन तो व्यर्थ ही गए। मुझे तो इस बात की खुशी है कि ढाई बरस बाद ही सही, नरेंद्र भाई के प्रधानमंत्रित्व का सार्थक-दौर अब कम-से-कम शुरू तो हो जाएगा। उनका बचा कार्यकाल व्यर्थ जाने से बच गया। मुझे लगता है कि अगर विजय माल्या ने अपने किंगफिशर विला का नाम मोक्ष-भवन और सुब्रत रॉय ने अपने सहारा शहर का नाम मोक्षपुरम रखा होता तो दोनों को ये दिन कभी नहीं देखने पड़ते। वक्फ़ की ज़मीन पर बने अरबों रुपए के अपने घर का नाम बदल कर मुकेश अंबानी अगर आज भी ‘अंटालिया’ से ‘अंत्योदय’ कर लें तो आपको हो-न-हो, मुझे तो पूरा यक़ीन है कि पूरे मुकेश-परिवार का ऐसा हृदय परिवर्तन होगा कि महात्मा गांधी के अंतिम व्यक्ति की झोंपड़ी किलकारियां भरने लगेगी।
अब ये सवाल तो उठते ही रहेंगे कि हुंमायू के बेटे अबुल फ़तह ज़लालुद्दीन मुहम्मद अकबर के नाम वाली रोड पर रह कर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कौन-सा अपने को अकबर की तरह योद्धा साबित कर दिया है? रेल मंत्री सुरेश प्रभु और गंगाजल मंत्री उमा भारती अगर अकबर रोड के बजाय कहीं और रह रहे होते तो क्या कम-ज़्यादा प्रभावी हो जाते? अवध के सूबेदार नवाब सफदरजंग बेहद कुशल प्रशासक माने जाते थे, लेकिन उनके नाम वाली रोड पर रहने से क्या विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और लघु-मध्यम उद्योग मंत्री कलराज मिश्रा प्रशासनिक जादूगर हो गए? अरुण जेटली अगर कृष्ण मेनन मार्ग पर नहीं रहते तो क्या अपने फ़न में माहिर न होते? क्या रविशंकर प्रसाद को हम इसलिए संत मानें कि वे मदर टेरेसा क्रीसेंट पर रहते हैं? क्या मौर्य-काल के सम्राट अशोक के नाम वाली रोड पर रहने से मेनका गांधी मगध की संपन्न संस्कृति की वाहक हो गईं?
दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक दर्शन, गणित और खगोलशास्त्र के विद्वान थे। क्या इससे तुगलक रोड पर रहने वाले अनंत कुमार और स्मृति ईरानी को भारतीय दर्शन का पुरोधा मान लिया जाएगा? क्या वेंकैया नायडू पर पहले औरंगजेब का और अब ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का कोई असर दिखाई देता है? बंगाल के पहले अंग्रेज प्रशासक रॉबर्ट क्लाइव के नाम वाली रोड का नाम बदल कर अठारहवीं सदी के कर्नाटक संगीतकार त्यागराज के नाम पर रख देने से वहां रहने वाले मंत्री डी. वी. सदानंद गौड़ा क्या तानपूरा बजाना सीख गए? लखनऊ के विक्रमादित्य मार्ग पर रहने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की न्यायप्रियता से समाज का हर तबका किस कदर आनंदित है–यह भी पांच साल से देखते ही बन रहा है।
घर के बाहर की सड़क का नाम बदलने से ज़्यादा बेतुका तोहफ़ा जन्म दिन के चार दिन बाद प्रधानमंत्री को कोई क्या दे सकता था? नरेंद्र भाई इतने भोले तो नहीं हैं कि यह न समझ पा रहे हों कि उनका विजय जुलूस अब थमने लगा है। उनके गुणगान के नगाड़े से अब दर्दनाक स्वर निकल रहे हैं। संसदीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनय के समीकरणों का बिखराव संभाले नहीं संभल रहा है। ऐसे में नरेंद्र भाई को अपने आसपास घिरे मदारियों के करतबों की नहीं; विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों के ज़मीनी अमल की ज़रूरत है। 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते समय जो पुष्प-प्रसादी मोदी ने अपने कुर्ते की जेब में रखी थी, उसे देने वाले स्वामी आत्मस्थानंद ने क्या कभी यह चिंता की कि वे बेलूर में किस मार्ग पर रहते हैं? एक साल पहले इसी सितंबर के महीने में ऋषिकेश के शीशमझाड़ी में जिन स्वामी दयानंद गिरि को देखने मोदी गए थे, वे किसी भी मार्ग पर रहते तो भी नरेंद्र भाई उन्हें अपना गुरू ही मानते। उन सभी के लिए मार्ग पर चलना ज़रूरी था, नामपट्टिका लगा कर रहना नहीं। इसलिए हमारे प्रधानमंत्री किसी भी मार्ग पर रहें, अंततः तो मन-वचन-कर्म से ही पहचाने जाएंगे। इस मुक़ाम तक आते-आते भारत के हर प्रधानमंत्री को तमाम घुमावदार सड़कों से गुज़रना पड़ा होगा। मोदी कोई अपवाद नहीं हैं। लेकिन सड़क के नाम को ले कर उनकी चिंता ने मुझे सचमुच चिंतित कर दिया है।
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