घने जंगलों और क्रिकेट के बहुरूपिया खेल की भाषा के गहन जानकार रामचंद्र गुहा पिछले कुछ बरस में सामाजिक-राजनीतिक विषयों के भी ऐसे हस्ताक्षर बन गए हैं कि कइयों के लिए उनका कहा पत्थर की लकीर है। उनकी क़िस्सागोई-शैली पर रीझे बैठे लोगों की कोई कमी नहीं है। गुहा ने अपनी ताज़ा क़िताब ‘डेमोक्रेट्स एंड डिसेंटर्स’ में कम-से-कम अगले दो दशक तक कांग्रेस की पुनर्वापसी की संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगाया है और भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रीय भाग्य-विधाता घोषित कर दिया है। गुहा ने अंग्रेज़ी के एक अख़बार को दिए इंटरव्यू में राहुल गांधी को यह सलाह भी दे डाली है कि वे राजनीति से संन्यास ले लें, विवाह कर लें और अपना परिवार पालें।
समरथ का दोष तो चूंकि गुंसाईं जी ने भी नहीं माना तो मैं भला कौन होता हूं कि गुहा की आकाशवाणी पर कुछ कहूं? लेकिन दिल तो बच्चा है जी, अभी कुछ कच्चा है जी, तो माने तो कैसे माने! इसलिए बावजूद इसके कि मेरे कई अपने भी इसे छोटे मुंह-बड़ी बात मानेंगे, मैं कहना चाहता हूं कि गुहा वन-विज्ञान और पर्यावरण के कितने ही बड़े अध्येता होंगे, क्रिकेट इतिहास के पानी में कितनी ही गहरी पैठ रखते होंगे, भारत के पहले के गांधी और गांधी के बाद के भारत को जानने की कितनी ही कोशिशें उन्होंने की होंगी; मगर भारत के सामाजिक-राजनीतिक खेत की मुंडेर पर चलते अपने क़दमों को बहकने से वे रोक नहीं पा रहे हैं।
भारत के राष्ट्रीय-कैनवस पर अगले बीस साल तक कांग्रेस की अनुपस्थिति और भाजपा की अंगद-उपस्थिति की दिव्य-दृष्टि जिन रामचंद्र गुहा को आज प्राप्त हुई है, वही रामचंद्र गुहा महज छह बरस पहले तक अपने इस दिव्य-ज्ञान का बखान करते नहीं थकते थे कि अगले बीस-तीस साल तक भाजपा के राष्ट्रीय स्तर पर उभरने के कोई संकेत दूर-दूर तक नहीं हैं। 2010 के मई महीने में दूसरे बुधवार को एक भारतीय वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में कही अपनी बातें गुहा को अब याद नहीं होंगी। मैं इतिहासकार नहीं हूं, लेकिन उनका वह इंटरव्यू मैं ने इतिहास-संकलन की अपनी निजी फाइलों में अब भी संजो रखा है। गुहा का तब कहना था कि ‘‘भाजपा को राष्ट्रीय पार्टी बनने का मौक़ा मिला था, लेकिन उसने यह मौक़ा खो दिया है। उस पर अब कोई यह भरोसा नहीं करेगा। अब तो बीस-तीस साल बाद ही कोई वैकल्पिक राजनीतिक संरचना देश में आकार लेगी।’’
कांग्रेस के विकल्प की जिन छटाओं का कोई अंदेशा गुहा को अगले दो-तीन दशक के सियासी-क्षितिज पर नज़र नहीं आ रहा था, वे उनकी भविष्यवाणी के चार साल बाद ही ऐसे भरभरा कर छाईं कि भारत का सिंहासन भाजपा की गोद में जा गिरा। बस, वह दिन है और आज का दिन है, इतिहासविद् रामचंद्र गुहा ‘नेहरू-गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस’ की स्थापना के अभियान में अनवरत जुटे हुए हैं। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के बारे में उनकी असली नीयत पहले भी ज़ाहिर होती रही है, लेकिन पिछले ढाई बरस में अपने उस्तरे की धार वे इतनी तेज़ कर चुके हैं कि अब उन्हें राहुल की शादी की चिंता भी खाए जा रही है। एक ज़माने में गुहा इस बात का ज़िक्र कर बार-बार इतराया करते थे कि जब वे छह साल के थे तो नेहरू जी उनके घर आए थे। लेकिन अपने को नेहरू के समाजवाद का पुजारी मानने वाले गुहा का यह रूपांतरण मुझे इसलिए अचंभित नहीं करता है कि मुलम्मे के भीतर से झांकती उनकी सूरत का नज़ारा देखने के लिए किसी को इतिहासकार होने की ज़रूरत नहीं है। इसके लिए इतिहास का पाठक होना ही बहुत है।
ये वही गुहा हैं, जिनकी क़लम की ललित-थिरकन ने हमें बार-बार याद दिलाया है कि नेहरू किस तरह संगीतकार पॉल रोबेसन की पत्नी, सरोजिनी नायडू की बेटी और माउंटबेटन की पत्नी एडविना का अतिरिक्त ख़्याल रखा करते थे! किस तरह एडविना के लिए तो नेहरू ने भारत के हितों तक की अनदेखी की! गुहा का लेखन हमें समझाता है कि जिन बांधों को नेहरू निर्माण के मंदिर मानते थे, उन्होंने हमारा नाश कर दिया। गुहा हमें यह भी बताते रहे हैं कि प्राथमिक शिक्षा पर नेहरू ने ध्यान दिया होता तो आज देश की शैक्षणिक नींव इतनी कमज़ोर न होती। गुहा जब छह साल के थे, मैं भी तब क़रीब उतने ही साल का था। मेरे घर तो नेहरू जी कभी नहीं आए, लेकिन मैं उनके वक़्त के टाटपट्टी स्कूलों में पढ़ा हूं। मैं गुहा की तरह न दून स्कूल, सेंट स्टीफंस और दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में पढ़ने जा पाया और न केलिफोर्निया, बार्कले, येल, स्टेनफोर्ड और ओस्लो विश्वविद्यालयों में पढ़ाने। लेकिन ऐसे हज़ारों लोगों को मैं निजी तौर पर जानता हूं, जो नेहरू के समय की प्राथमिक शिक्षा के बूते ही आज स्वाभिमान से अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं।
राजीव और सोनिया गांधी में भी गुहा को एक नहीं, दुनिया भर की ख़ामियां कोई आज से नज़र नहीं आ रही हैं। वे लिखते रहे हैं कि हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिए अगर कोई दोषी है तो राजीव गांधी। सोनिया से उन्हें यह मलाल है कि उन्हें अपनी सास इंदिरा, अपने पति राजीव और अपने बेटे राहुल से इतना मोह क्यों है? गुहा का कहना है कि परिवार के प्रति इस मोह ने कांग्रेस की राजनीति चौपट कर दी है। पूरे देश में विपक्ष-शून्यता देखने वाले गुहा कह रहे हैं कि कांग्रेस विरोध की आवाज़ खोती जा रही है। उनके हिसाब से कांग्रेस गंगा-पट्टी से गायब हो चुकी है, बीमारी के चरम पर है और धीमी मौत मर रही है। नियमगिरि से ले कर भट्टा-पारसौल और दलितों से ले कर किसानों तक के लिए रात-दिन एक कर रहे राहुल गांधी और उत्तर प्रदेश की यात्रा में उनके लिए उमड़ रहे लोग गुहा को किस दूरबीन से दिखाई देंगे, वे ही बताएं!
नेहरू की समाजवादी आस्थाओं ने कांग्रेस की जिस सोच को गढ़ा है, वह मूलतः पश्चिमी समझ से सराबोर गुहा को रास आ ही नहीं सकती। 2013 की गांधी जयंती पर वॉल स्ट्रीट जरनल को गुहा ने एक इंटरव्यू दिया। तब 2014 के आम चुनावों में सात महीने बचे थे। संवाददाता जोआन्ना सुग्डेन से गुहा ने कहा, ‘‘कांग्रेस की राजनीति में ऐसे लोग हैं, जो ढांेगी हैं, झूठ बोलते हैं, रहस्यमयी हैं, पाखंडी हैं और गांधी की शिक्षा का हर दिन उल्लंघन करते हैं।’’ अपने लेखन और बातों में गुहा ने बार-बार दोहराया है कि नेहरू-गांधी परिवार ने महात्मा गांधी के बुनियादी सिद्धांतों के उलट काम किया है। वे इंदिरा गांधी को एक ऐसा तानाशाह मानते हैं, जिनके अधिनायकत्व का प्रशिक्षण लोकतांत्रिक व्यवस्था में हुआ। वे राजनीति में वंशवाद के लिए भी इंदिरा गांधी को ही सबसे बड़ा दोषी करार देते हैं। अपनी क़िताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में गुहा ने तफ़सील से यह दलील दी है। नवंबर 2012 के अंतिम सप्ताह में गुहा ने अपनी क़िताब ‘पेट्रियट्स एंड पार्टिसंस’ के बारे में बोलते हुए नेहरू, इंदिरा और राहुल के बारे में जिस तरह की जली-कटी बातें कहीं, उनसे एक इतिहासकार के संयत आकलन का संगीत नहीं, निजी दुराग्रह का बेसुरा शोर सुनाई दिया था। इसलिए गुहा और कुछ भी हों, निष्पक्ष चिंतक तो कतई नहीं हैं।
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