अपनी सरकार के दो बरस पूरे होने पर गद्गद् प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया गेट पर समां बांधने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। यह तो अच्छा हुआ कि उन्हें दूरदर्शन पर तरस आ गया और उन्होंने अपनी दो साल की उपलब्धियों का बखान नहीं किया, वरना देश जीता-जागता प्रसारण दूरदर्शन को पूरे एक हफ्ते अनवरत जारी रखना पड़ता। लेकिन तब भी प्रधानमंत्री ने अपनी जिन बातों का ज़िक्र किया, मुझे तो उनमें सार नज़र आता है।
अगर कोई प्रधानमंत्री चिंतित है कि उन विधवाओं के नाम पर भी पेंशन का भुगतान होता है, जिनका विवाह तो दूर, कभी जन्म तक नहीं हुआ, तो इस फ़िक्र में ग़लत क्या है? अगर देश के प्रधानमंत्री को करोड़ों नकली राशन कार्डों के ज़रिए हो रही अनाज और केरोसिन तेल की कालाबाज़ारी रोकने की ललक है, तो इसमें ग़लत क्या है? मैं तो मानता हूं कि किसी भी प्रधानमंत्री को यह हक़ होना चाहिए कि वह मान कर चले कि जो उसे शाबासी नहीं दे रहे हैं, वे सब वे लोग हैं, जो अब तक ”खाने-पीने” में लगे थे और नए निज़ाम में भूखे मर रहे हैं। ऐसे में अगर कोई प्रधानमंत्री खुद की ही पीठ थपथपाए तो इसमें ग़लत क्या है? क्या किसी प्रधानमंत्री को इतना भी हक़ नहीं होना चाहिए कि वह विधानसभाओं के ताजा चुनाव नतीजों से उत्साहित होकर अगले विधानसभा चुनावों की सियासी बिसात भी बिछानी शुरू कर दे और सहारनपुर से लोगों को याद दिलाए कि वह उत्तरप्रदेश-वाला है? जिन्हें 2017 के उत्तरप्रदेश के राजनीतिक नक्शे में कोई दिलचस्पी नहीं है, वे अपने घर में बैठें, लेकिन मोदी से इस मामले में टोका-टोकी आख़िर वे कैसे कर सकते हैं?
कुछ लोगों को ऐतराज़ है कि रोशनी में नहाए इंडिया गेट पर मोदी ने अंधेरी गलियों से गुज़र रही भारतीय अर्थव्यवस्था पर चिंता क्यों ज़ाहिर नहीं की? देश को यह क्यों नहीं बताया कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की ज़ंमींदोज़ हो गई कीमतों की मेहरबानी से मुद्रास्फीति की जो दर गिर कर जुलाई 2015 में 3.7 प्रतिशत पर आ गई थी, अप्रैल 2016 में बढ़ कर 5.4 प्रतिशत पर पहुंच गई है? हमारे प्रधानमंत्री के माथे पर इस चिंता की लकीरें क्यों दिखाई नहीं दीं कि दो साल में नए रोज़गार सृजित नहीं हुए, उत्पादन वृद्धि की दर नकारात्मक हो गई, ग्रामीण भारत तंगहाल हो गया, कृषि क्षेत्र की अनदेखी हुई, सामान की बिक्री बेहद घट गई और ”मेक इन इंडिया” योजना ने भी कोई ठोस आकार नहीं लिया? लेकिन मुझे इन बातों पर ऐतराज़ करने वालों पर ऐतराज़ है। उन्हें सोचना चाहिए कि नरेंद्रभाई को काम संभाले दो बरस ही तो हुए हैं। इन लोगों में इतना भी धीरज नहीं है कि कुछ दिन तो शांत रहें! कुछ नही ंतो यह सोच कर ही तसल्ली करें कि अब इस सरकार के तीन बरस ही तो और बाकी रह गए हैं!
जिन्हें लगता है कि वर्षों की मेहनत से बनी देश की संवैधानिक संस्थाएं दो साल में तबाह हो गई हैं, राष्ट्रीय प्रतीकों पर योजनाबद्ध हमले हो रहे हैं और सर्व-समावेशिता की बुनियादी भारतीय संस्कृति पर काले साए मंडरा रहे हैं, वे बेचारे जानते ही नहीं कि उनकी सोच में कितना खोट है। ऐसे सभी लोगों को बाबूजी की मधुशाला पढ़नी चाहिए, जिसमें ”किस पथ से जाऊं” के असमंजस में पड़े मूढ़ पथिक को ”राह पकड़ तू एक चला-चल” का ज्ञान विस्तार से दिया गया है। मधुशाला कहती है कि ”हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला, ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुख कर सुंदर साक़ी का”। दो बरस पहले दिखाए कल्पना-लोक में जो नहीं रहना चाहते, उनका कोई क्या करे? भ्रष्टाचार मिटाने की धुन में लगे मोदी को इन सब बातों की परवाह नहीं है। जिन्हें ज़मीन ऊबड़-खाबड़ लग रही है, लगती रहे।
बाबूजी के प्रतिभाशाली पुत्र को इंडिया गेट पर नरेंद्रभाई के दो बरस की उपलब्धियों के आसमान में चार चांद लगाने का ज़िम्मा देने वाले जब पनामा से उड़ कर आए ताज़ा काग़ज़ात ही भूल गए तो उन्हें यह कहां से याद रहता कि दूरदर्शन का 33 करोड़ रुपए का ब़काया चुकाने से महानायक किस तरह बचे-बचे फिरते थे? जब मैडम तुसाद के मोम-भवन में महानायक का पुतला लब रहा था, तब वे दूरदर्शन से कह रहे थे कि एक तिहाई रक़म ले कर मामला रफ़ा-दफ़ा करो। बहुत मगज़मारी के बाद उन्होंने 9 करोड़ 65 लाख 50 हज़ार 583 रुपए का पहला चैक इस अदा से दूरदर्शन को दिया, ग़ोया बक़ाया न चुका रहे हों, दान दे रहे हों। बाक़ी की रक़म के लिए फ़रमान ज़ारी कर दिया कि तीन साल में किस्तों में देंगे। जो भूलना चाहें, वे यह भी भूल सकते हैं कि किस तरह महानायक की क़ारोबारी गतिविधियों में उस केतन पारीख ने 70 करोड़ रुपए लगाए थे, जिसकी वज़ह से शेयर बाज़ार में आम निवेशकों के खरबों रुपए डूब गए थे। भूलने वालों को यह भूलने का भी हक़ है कि अपनी आवाज़ के बूते इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लेने वाले महानायक ने पूजा बेदी को दिया अपना इंटरव्यू स्टार टीवी पर रुकवा कर बोलने की आज़ादी की रक्षा की थी और किस तरह एनडीटीवी के प्रणव राय को एक ज़माने में महानायक के खि़लाफ़ विश्वास-भंग की आपराधिक प्राथमिकी दर्ज़ करानी पड़ी थी।
सो, ज़श्न के वक़्त इस तरह की फ़िजूल बातें करने वाले दिलजलों से अगर भारत जैसे महान देश का प्रधानमंत्री परेशान होने लगे तो फिर तो हो गया काम! इसलिए मोदी ने साफ़ कर दिया है कि जब काम वे करेंगे तो गालियां कोई दूसरों को थोड़े ही पड़ेंगी। उलटे-पुलटे घंधे करने वाले अपनी मुश्कें कसने वाले की राह में क्या फूल बिछाएंगे? इसलिए वे सब, जो पुष्प-अर्पण की मुद्रा में नहीं हैं, भ्रष्टाचारी हैं और देश की लूट में शामिल रहे हैं। वे सब, जो भाषा, खान-पान और विचारों की एकरूपता के सिद्धांत को नहीं मानते, उनकी नीयत काली है। सियासी-प्रकृति के अब दो ही रंग हैं–काला या सफ़ेद। रिश्तों के अब दो ही प्रकार हैं–दोस्त या दुश्मन। जो दो बरस की का़मयाबियों पर नहीं चहक रहे, उनकी आंखों में ग़लत सुरमा लगा है। जो सफ़ेद नहीं हैं, काले हैं। जो दोस्त नहीं हैं, दुश्मन हैं।
जो सिर्फ़ मीन-मेख में लगे हैं, वे भी ग़लत हैं। लेकिन जो तथ्यों की तरफ़ ध्यान दिलाने को सिर्फ़ मीन-मेख समझ कर खारिज़ कर रहे हैं, वे उनसे भी ज़्यादा ग़लत हैं। अपने आसपास ठकुरसुहाती करने वालों को इकट्ठा कर उन्हीं के बीच रमे रहने वालों की सियासी उम्र लंबी नहीं होती। इंडिया गेट को अपना लालक़िला बनाने वाले प्रधानमंत्री की बातों में किसी एक राजनीतिक दल की आक्रामक दलीलों के बजाय राजपुरुष की संजीदा गहराई होनी चाहिए। उत्सवधर्मिता के भी अपने नियम होते हैं। उत्सव खुद के मनोरंजन के लिए आयोजित नहीं किए जाते। उत्सव खुद को प्रसन्न करने के लिए भी आयोजित नहीं किए जाते। उत्सव की सार्थकता तब है, जब सबके पांव अपने-आप थिरक रहे हों। इशारों पर बंदर-भालू को नचाने की प्रक्रिया को उत्सव कहा जाता है या तमाशा? इंडिया गेट से लेकर टाइम्स स्क्वेयर तक जिस दिन भारतीय जनता पार्टी के नहीं, भारत की जनता के पैर थिरकने लगेंगे, नरेंद्रभाई भी नेहरू की तरह ऐसे इतिहास-पुरुष बन जाएंगे, जिनका लिखा कोई नहीं मिटा पाता है। उत्सव इतिहास में दर्ज़ होते हैं, तमाशों के किस शोर ने उसके पन्नों पर जगह बनाई है?
लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
You must be logged in to post a comment Login